ज्ञानेश पाटील : जावेद सर, आपका बहुत बहुत स्वागत. हमारा समाज मुख्यतः धार्मिक, श्रद्धालु, ईश्वरीय कल्पना पर आस्था रखनेवाले लोगों का है. इस समाज की एक विशेषता है कि नास्तिकता को या नास्तिक होने को वो kindly नहीं लेता है. दूसरी तरफ जो नास्तिक समाज है वो भी कहीं ना कहीं धर्म से घिरा हुआ ही रहता है. धर्म से, अंधश्रद्धाओं से परेशान रहता है. और फिर धीरे धीरे अपने समाज के बहुत बड़े हिस्से से वो डिस्कनेक्ट हो जाता है. मैं जब भी आपको देखता हूं, तो नहीं लगता कि आपके साथ ये समस्या होगी. आप हमेशा समाज से जुड़े हुए रहकर भी समाज के प्रति काफ़ी सकारात्मक रहते है. आपने कई बार कहा है कि हिंदुस्तानी इंसान बेवकूफ नहीं है, या फिर इस देश को वो बर्बाद नहीं होने देगा. इन चीज़ों के बारे आप बहुत आशावादी रहते है. मेरा आपसे पहला सवाल है कि ये जो आशावाद आप में है वो कहाँ से आता है?
जावेद अख्तर : देखिए, एक तो आपको बताऊं कि जिसे आज हम बड़ा बुरा वक्त कहते हैं, समझते हैं वो क्या है? दुनिया में तेरह मुल्क आज भी हैं, जहां अगर आप बोल दें कि आप नास्तिक है, तो आपको फांसी की सज़ा है. वहाँ का नियम, कानून ही ऐसा है कि, आप नास्तिक हैं तो आपको फांसी की सज़ा होगी. बहुत दूर नहीं है ये मुल्क. एक तो पड़ोस में ही है. आप बोल दीजिए कि जिस धर्म में आप पैदा हुए उसे आप नहीं मानते है. आपका इसपर कोई भरोसा नहीं है. इतना काफी है आपको फांसी देने के लिए. फिर भी आज हम कहते हैं कि freedom of expression कम हो रहा है, निगेटिव फोर्सेस बढ़ रहे है. ऐसा पहले कभी नहीं था. फिर भी आप यहाँ ऐसा सम्मेलन कर रहे हैं और ऐसा सम्मेलन करना हिंदुस्तान में मुमकिन है. तो जब हम शिकायत करते हैं, तो हमें अपनी blessings भी गिननी चाहिए. अब हमें बहुत ज्यादा की आदत है तो हमें यह कम लग रहा है. और जिसे हम कम कह रहे है ना, उतना भी दुनिया में बहुत से मुल्कों में नसीब नहीं है.
बाकी ये है कि जैसे एक बच्चा होता है, धीरे धीरे बड़ा होता है, तो उसकी समझ बढ़ती जाती है. ऐसा ही समाज होता है, ऐसी ही संस्कृति होती है, जो बढ़ती है. हजारों सालों में. कहीं ना कहीं उनके अंदर एक विज़्डम जेनेटिकली, अब तो ये विज्ञान भी मानता है कि विशिष्ट विज़्डम, एटीट्यूड जीन्स में ट्रैवल करता है, तो कहीं ना कहीं एक विशिष्ट संवेदनशीलता आपके जीन्स में ट्रैवल करती है.
दूसरा यह कि, आप किसी भी हिंदुस्तान के आदमी को ले लीजिए, उसकी फैमिली ट्री ढूंढें, चाहे चार पीढ़ी बाद या चालीस पीढ़ी बाद, आया तो वो किसी किसान के घर से ही है. वो हिंदुस्तानी है जिसकी जड़ें कहीं ना कहीं खेती में है. किसान का स्वभाव एक्स्ट्रीमिस्ट नहीं होता है. ये गाँव, ये शहर, ये मुल्क, ये देश, ये जमीं खुशहाल है, आबाद है, समृद्ध है. एक्स्ट्रीमिज्म आता है एक्स्ट्रीम हालात से. आप देखिए कि जिन मुल्कों में संसाधन कम है, जिन मुल्कों में जीना बहुत कठिन है, कठिन भौगोलिकता की वजह से है, कम पानी की वजह से है, ट्रोपोग्राफी की वजह से है, खेती योग्य जमीन की कमी की वजह से है – वहाँ पर एक हार्शनेस है कल्चर में. लेकिन जहाँ सब कुछ उपलब्ध है, जो गंगा जमुना का मैदान है – हमारे उत्तर भारत में, वो पिछले पांच हजार साल से साल में दो फसलें दे रहा है. अमेरिका में क्या होता है? अगर आप कोई खेत दो साल के लिए जोत लेते हैं, तो उसे तीन साल के लिए छोड़ देते है ताकि उसके केमिकल्स फिर से ऊपर आ सके. आप साल में दो फसलें चार हजार पांच हजार साल से उगा रहे हैं और वो उगा चला जा रहा है. तो जहाॅं इतना बहुत कुछ था, है, वहां एक्स्ट्रिमिस्ट एटीट्यूड नहीं आता है. तो हम जेनेटिकली एक्स्ट्रिमिस्ट एटीट्यूड के लोग नहीं है. मगर जैसे शरीफ आदमी को शौक होता है कि मेरे सारे दोस्त बदमाशी करते है, मै घर में बैठा रहता हूं, आज कुछ बदमाशी मै भी करूंगा. तो उसी तरह कभी कभी हिंदुस्तानियों को भी जोश आता है, बहुत हो गया, अब हम भी एक्स्ट्रिमिस्ट बनेंगे. ये भी एक्स्ट्रिमिस्ट है, वो भी एक्स्ट्रिमिस्ट है, तो हम क्यों नहीं? मगर जो जेनेटिकली नहीं है, तो धीरे धीरे करके उसी जगह वापस आ जाते है. आप हिंदुस्तान का इतिहास देखेंगे तो ऐसा रहा है आम आदमी. जो लीडर थे – आज पॉलिटिकल लीडर हो गए है – कभी राजे महाराजे, नवाब, सम्राट, बादशाह – दुनिया में कहीं का भी हो – उनकी जिंदगी, एक वर्च्यू सब अलग होता था. मैं आम इंसान की बात कर रहा हूं. मैं ये विश्वास के साथ कहता हूं कि आम हिन्दुस्तानी मुलतः एक्स्ट्रिमिस्ट नहीं है।
ज्ञानेश पाटील : एक तर्क ऐसा भी होता है कि सारे जो आर्ट फॉर्म्स हैं वो कहीं ना कहीं धर्म का सहारा लेकर या धर्म की प्रेरणा से विकसित हुए हैं. जैसे कि कई सारे मंदिर बने हैं तो मूर्तिकला, स्थापत्यकला, चित्रकला का विकास हुआ है. जैसे अजंता के चित्र हैं या कविताएं हैं वो भगवान की स्तुति के लिए हैं. तो ये जो कविताएं हैं वो धर्म के आधार से की गई हैं. तो नास्तिक कलाकार होने के कारण आपको ये लगता है कि श्रद्धावान ना होना आपके लिए हानिकारक है?
जावेद अख्तर : देखिए, दक्षिण में ऐसे मंदिर हैं कि एक पहाड़ी ली है और काटना शुरू किया. काटते काटते पहले मंदिर का बाहर का हिस्सा काट लिया, फिर दरवाज़ा काटा तो अंदर एक कमरा बन गया. फिर उसी में देवताओं को बना दिया. पूरा का पूरा मंदिर एक पत्थर का हो, ये मामूली काम नहीं है. ये किया उन्होंने. माइकल एंजिलो ने. आप कभी इटली जाएंगे तो देखिए. वहां पे ढ़ाई बरस तक उस आदमी ने उल्टा लटक कर पेंट किया है. और क्या चीज़ बनाई है! जो स्टेच्यू उसने बनाया है, जिसमें मदर मेरी जीसस को गोद में ली हुई हैं, क्या स्टेच्यू है! डेविड का स्टेच्यू देखिए. आपकी सांस उड़ जायेगी, ऐसा स्टेच्यू है. लेकिन ख्रिश्चियानिटी नहीं होती तो क्या माइकल एंजिलो पान की दुकान खोल लेता? क्या करता? क्या कुछ भी नहीं बनाता वो? ये आदमी, जिसने ये मंदिर बनाए है, एक पत्थर को काट के, अगर उसके पास धर्म नहीं होता तो क्या वो कुछ भी नहीं बनाता? वो क्या करता? वो भी पान की दुकान खोलता? वो आर्टिस्ट थे. कुछ लोग थे जिनके पास पैसा था, जिनके पास ऑपर्च्युनिटी थी, वो आपको हायर करते थे. आप काम करो हम आपको पैसा देंगे. या फिर ये काम करो ये काम बहुत नेक है, अच्छा है – तो आर्टिस्ट लोग वो काम करते थे. अगर ये काम भला काम नहीं होता तो, कोई दूसरा भला काम होता. अगर वो अच्छे लोग थे तो, अच्छा ही काम करते. वो आर्टिस्ट थे तो, आर्ट बनाते ही. इस्लाम में ऐसा है कि आप तस्वीर नहीं बना सकते. तो ईरान के चित्रकार हैं जिन्होंने तस्वीरें नहीं बनाई – हालांकी बाद में कुछ बनाने भी लगे थे. तुर्की में आर्टिस्टों को आज़ादी होती तो वे और भी अच्छी पेंटिंग्स बनाते. वो भी बन जाते बड़े बड़े चित्रकारों की तरह. हुआ ये कि जहाँ धर्म के पास पावर थी, पैसा था और धर्म आपको एक्साइट करता था कि तुम अगर ये काम करोगे तो अच्छा काम होगा. ऐसा ना भी होता तो कुछ और होता. सोवियत यूनियन था. तो क्या उसमे चित्र नहीं बने? उसमे रिवोल्यूशन की बहुत खूबसूरत पेंटिंग्स बनाई गईं. ये आर्टिस्ट इस वजह से नहीं थे कि धर्म था. धर्म पब्लिसाइज्ड हो गया क्योंकि ये आर्टिस्ट थे. तो धर्म को कलाकारों का एहसान मानना चाहिए या ये कलाकार धर्म का एहसान मानेंगे?
ज्ञानेश पाटील : हाल ही में भारत का चंद्रयान मिशन यशस्वी रहा. उसके कुछ दिनों के बाद इसरो चेयरमैन, सोमनाथ जी ने एक इंटरव्यू में कहा कि वो मूलतः एक एक्सप्लोरर हैं और जैसे वो बाहरी दुनिया को एक्सप्लोर करते हैं – स्पेस रिसर्च के जरिए – वैसी ही जो आंतरिक दुनिया है उसे भी वो एक्सप्लोर करते हैं – आध्यात्मिकता, स्पिरिचुअलिटी के जरिए. तो इस सिलसिले में मेरा सवाल है. क्या आध्यात्मिकता, स्पिरिचुअलिटी इंसान की कोई ऐसी जरूरत पूरी करती है जो शायद हम नास्तिक होने के कारण न समझ पाते हों ?
जावेद अख्तर: ये आंतरिक दुनिया क्या होती है? आंतरिक दुनिया क्या बाहर की दुनिया से अलग है? आज भी अफ्रीका के जंगल में शायद कोई ट्राइब मिल जाए जो कैनिबल हो, जो इंसानों को खाता हो. कभी तो थे, आज हैं कि नहीं मालूम नहीं है मुझे. एक आदमी जो कैनिबल है, जिसको बचपन से मां ने आदमी खिलाया है, उसको वहीं आदत है. वो इन्सान को पकड़ के लाते है, काट कर खा लेते है. तो बच्चे को आदत है, जैसे सब्जी लाते हो, वैसे ही ये. काट कर खा लेते है. उसका जो आंतरिक विश्व है क्या आदमी खाने से उसमे कुछ डिस्टर्बेंस होता है? नहीं होता है. क्यों नहीं होता है? ये जो आंतरिक है, ये आंतरिक है ही नहीं. ये बाहर का ही स्ट्रक्चर है. जो सच्चा शाकाहारी है उसको आप धोखे से मांस खिला देंगे और बाद में बोलेंगे कि ये मांस है तो उसका जो आंतरिक विश्वास है, दुनिया है वो उस खाने को रिजेक्ट कर देगी. मगर जो शाकाहारी नहीं है वो तो आराम से खायेगा. तो ये आंतरिक जो है वो कोई आसमान से नहीं उतरता. ये आंतरिक बाहर की दुनिया से ही बनता है. तो इतना कुछ आप आंतरिक को ज्यादा तरजीह मत दीजिए।
उसके बाद जहां जहां बातें आपको समझ में नहीं आती, जहां जहां ग्रे एरिया है, ठीक से लाइट नहीं पड़ रही है – लॉजिक की, रीज़न की, नॉलेज की – आप उसको रोमान्टिसाइज करते हैं. ये देखो धुंधला धुंधला है. अरे, धुंधला है तो रोशनी डालो उसमें. धुंधला धुंधला क्यों है भाई? तो किस्सा ये है कि हम अपनी ज़िहालत की, अपनी नॉलेज में कमी की, या अपनी शिक्षा अधूरी होने का बेहद महिमामंडन करते है. आप देखिएगा, एक धार्मिक आदमी है. वो बोलता है कि आपको मालूम है एक पत्ती कैसे बन जाती है? समझो, नहीं मालूम. तो ये तो शर्मिंदा होने की बात है कि हमे मालूम नहीं है. इसमें गर्व की क्या बात है – कि हमको ये भी नहीं पता, हमको ये भी नहीं पता. तो ये जो आंतरिक है वो रिफ्लेक्शन है बाहर का. अगर बाहर ठीक होगा तो आपका आंतरिक भी ठीक होगा।
ज्ञानेश पाटील : इसी सिलसिले में एक अगला सवाल था कि साइंटिस्ट के अंदर साइंटिफिक टेंप्रामेंट ना होना या साइंटिस्ट का धार्मिक होना – इसे आप कैसे देखते हैं ?
जावेद अख्तर : सिझोफ्रेनिया नाम की एक बीमारी है. वो इतने लोगों में है कि आपको कहने की हिम्मत नहीं होगी, लेकिन है बीमारी. भाई, आपको तो धर्म बताता था कि वो चंद्रलोक है वहां, तो चंद्रलोक आपको मिला? आपने वहां घर लिया तो क्या चंद्रलोक के कुछ लोग आए थे? कि भाई ये रेंट रह गया. तो उस चंद्रलोक का क्या हुआ? वो कहाँ गया?
ज्ञानेश पाटील : जी! मैं हिंदी सिनेमा के बारे में बोलना चाहूंगा. आज़ादी के बाद जो भी कलाकार हिंदी सिनेमा में आए एक तो वो खुद लेफ्टिस्ट थे या लेफ्ट की तरफ उनका झुकाव था. हम कह सकते है हिंदी सिनेमा सालों से सेक्युलर मूल्यों का पक्षधर रहा है. पिछले कुछ सालो से आप देख रहे हैं इसमें परिवर्तन आया है. नसीरुद्दीन शाह ने भी एक इंटरव्यू में कहा कि अभी ज्यादातर फिल्में regressive और jingoistic बन रही हैं. कुछ फिल्मों के नाम भी लिए उन्होंने. तो आप इसे कैसे देखते हैं ?
जावेद अख्तर : इससे हमें एक बात समझनी चाहिए, जैसे अभी हम आंतरिक दुनिया की बात कर रहे थे, वो आंतरिक दुनिया ये है. किसी ने बहुत अच्छी बात कही है कि मुझे किसी समाज के विज्ञापन दिखाओ और मैं तुम्हे उस समाज के बारे में हर बात बताता हूं. उससे आपको मालूम हो जायेगा कि इस समाज की मॉरलिटी क्या है? इस समाज के एस्पिरेशन्स क्या हैं ? इसके संस्कार क्या हैं ? और इसकी आकांक्षाएं क्या हैं ? आपको पता चल जायेगा. यही हाल फिल्मों का है. फिल्म अलग अलग समय में बदली है, और जैसा अभी आप कह रहे है, किसी हद तक, पूरी हद तक नहीं, लेकिन किसी हद तक वो सच भी है. तो ये क्यों होता है? जो समाज में होता है वो कहीं ना कहीं सिनेमा में होता है. समाज सिनेमा का हिस्सा नहीं है, सिनेमा समाज का हिस्सा है और जो वहां होगा वो सिनेमा में रिफ्लेक्ट होगा. कभी जान बूझ के आएगा तो कभी सहजता से आएगा.
मेरे बचपन में था. बहुत साल पहले की बात है. तो उस समय जो मध्यमवर्गीय लोगो का वर्ग था हिंदुस्तान में, वो पढ़े लिखे लोगों का था. मध्यमवर्ग में आप आ सकते हैं क्योंकि आप वकील हैं, डॉक्टर हैं, इंजिनीयर हैं, सिविल सर्विसेस में हैं, टीचर हैं, प्रोफेसर हैं, चार्टेड अकाउंटट हैं. तो आपके पास कोई विद्या है, तभी आप मध्यमवर्ग में होंगे, वरना कैसे होंगे? ये जो एक्स्टेंडेड फैमिली होती थीं जमीदारों की, उनके बच्चे शहर जाते थे. वहा पढ़ते थे और वो ये सारे बड़े बड़े काम करते थे. फिर औद्योगिकीकरण आया. हर पैकेज में कुछ अच्छा होता है कुछ बुरा होता है, और आप सोचते रहते हैं कि पहला वाला पैकज अच्छा था, ये बुरा है. इस पैकेज में क्या हुआ? औद्योगिकीकरण हुआ. हर इंडस्ट्री अपने लिए एक एन्सीलरी इंडस्ट्री बनाती है.
लुधियाना में साइकिल की एक बहुत बड़ी शॉप है. लुधियाना की वो साइकिल बनानेवाली कंपनी तिल्लियाँ खुद नहीं बनाएगी. जो कोई क्राफ्टमैन है, ऐसा काम करनेवाला कोई अनुभवी व्यक्ति है, उसे बोल दिया, “भाई, तू एक छोटी फैक्टरी खोल ले. हमें साल में दो टन तिल्लियाँ दे देना।” तो लग गया वो काम में. उसने साथ में तीन चार आदमी रख लिए. दूसरा काम था गद्दी का. तो फलाने को बोला कि वो तुम दोगे. तो होता ये है कि, जब एक बड़ी इंडस्ट्री आती है तो छोटी छोटी एन्सिलरीज पैदा होती हैं. इन छोटी छोटी एन्सीलरीज ने हिंदुस्तान में ८० के दशक में कम से कम १५ करोड़ लोगों को मध्यवर्ग में लाए. जब इंडस्ट्री फैली तो वहां नौकरियां मिलीं. इन इंडस्ट्रीज में काम करनेवाला हर आदमी बहुत पढ़ा लिखा नहीं था. ये क्राफ्टमैन थे, स्कॉलर नहीं थे. इनकी एक नई पीढ़ी तैयार हुई. और ये वर्ग इतना बढ़ा था कि इनकी मर्जी से फ़िल्में बनी, इनकी मर्जी से गाने लिखे गए, इनकी मर्जी से पॉलिटिक्स खेली गई.
“चोली के पीछे क्या है” को मैं उसी पैकेज का हिस्सा समझता हूं, जिसमें एल. के. आडवाणी की स्पीच थी. ये एक ही पैकेज है. “चोली के पीछे क्या है” जैसे गाने १९४० में भी बने, १९५० में बने लेकिन किसी शरीफ घर में सुने नहीं जाते थे. आज मैं कितने घरों में जाता हूं, लोग बोलते हैं, “देखिए साहब, हमारी बच्ची इस पे कितना अच्छा डांस करती है. बेटा करके दिखाओ अंकल को।” ये मैने पहले नहीं देखा था. तो हुआ ये की, जो इंटेलेक्चुअल एस्थेटिक गिरावट समाज में आई, वो फिल्म में भी दिखाई गई और राजनीति में भी दिखाई दी. १९५० में इन जैसे लोग म्यूनिसपैलिटी के लीडर होते थे. कम्युनलिज़्म जो है वो ८० के दशक में नहीं आया. वो तो बहुत पहले से था. लेकिन कम्यूनल लीडर्स में भी क्लास होती थी. बात करते थे तो पढ़े लिखें लोगों की तरह करते थे. उनका कम्युनलिज़्म का एक्सप्रेशन भी बड़ा एस्थेटिक तरीके से था. ये जो मोटापन आया वो फिल्म में भी आया और राजनीति में भी आया. हर जगह आया. अलग थोड़ी है वो. वैसे ही अगर एक छोटी लहर उठी है रिवाइवलेशन की, ग्लोरिफिकेशन ऑफ पास्ट की, कुछ इमेजिनरी, कुछ रियल तो वो आपको फिल्मों में झलकता हुआ दिखाई देगा. लेकिन by and large जो मास कम्युनिकेशन है और जो मास एंटरटेनमेंट है वो कंडीशन्ड है सेक्यूलर होने के लिए. उसका इसके अलावा रास्ता ही नहीं है. वो तो वहीं जायेगा. कुछ ये फिल्में चलेगीं, कुछ वो चलेगीं. कुछ ऐसी चल गयीं जिनको रोकने के लिए पूरी ताक़त लगा दी गई कि इन्हे तो चलना ही नहीं चाहिए. तो जनता ने कहा कि ये तो हम चला के रहेंगे. अंग्रेजी में कहावत है Husband is the last person to know. The same way ruler is the last one to know कि जमीन नीचे से निकल रही है. कौन जाकर उनको बोलेगा? मरना है उसे? तो हकीकत ये है कि ये फिल्मों का हिट होना, राइट विंग ने इन्हें रोकने को पूरी कोशिश की. क्या वो फिल्म इतनी अच्छी थीं कि ५००और ६०० करोड़ का बिजनेस करेगीं ? ऐसा तो पहले नहीं हुआ. लेकिन लोगो ने कहा, “बाकी कुछ करें ना करें, ये पिक्चर तो हम देखेंगे।” तो ये है मेसेज. मै नहीं जानता हसबैंड को पता चला है कि नहीं पता चला है, लेकिन ये हो रहा है।
ज्ञानेश पाटील : एक समस्या ऐसी बताई जाती है कि जो लाइक माइंडेड पीपल है उनका गुट जल्दी बन जाता है, नास्तिक उस से बाहर हो जाता है. जैसे शराब पीने वाले लोग जल्दी दोस्त बन जाते है, लेकिन जो शराब न पीने वाला होता है वो उनकी कंपनी में नहीं जाता तो कुछ मिसआउट कर जाता है. तो आपको कलाकार होकर एथिस्थ होने की वजह से कभी प्रोफेशनली नुकसान हुआ है?
जावेद अख्तर : नहीं! मुझे नहीं हुआ. मुझे कैंसर नहीं हुआ इसका मतलब ये नहीं कि दुनिया में कैंसर नहीं होता. मैं ट्रेन के नीचे नहीं आया इसका मतलब ये नहीं कि ट्रेन के नीचे कोई नहीं आता. मेरी आंखें नहीं चली गई इसका मतलब ये नहीं को लोगों की आंखे नहीं जाती. होता है, लेकिन मेरे साथ नहीं हुआ. ये जरूर है कि कभी कभार लोगो से पंगा हो गया. उन्होंने कहा, “यार, इसके साथ तो बात नहीं करेंगे.” मैने कहा, “इससे अच्छी कोई बात ही नहीं है।” ये सब हुआ. लेकिन उसका कोई ताल्लुक मेरी पॉलिटिकल, सोशल आइडियोलॉजी से नहीं था. कभी कभार हो जाता है काम में, वैसा ही हुआ. मगर झगड़े बहुत हुए. बॉयकॉट भी हुए मेरे. जब मै आर्टिस्ट के और म्यूजिशियन के कॉपीराइट के लिए लड़ रहा था, तो मीटिंग कर के मुझे बॉयकॉट किया गया. रिझोल्यूशन पास कर के. तो वो अलग बात है, उसका ना मेरी आइडियोलॉजी से ताल्लुक है, ना जिस धर्म में मै पैदा हुआ उससे ताल्लुक है।
ज्ञानेश पाटील : सर, रिचर्ड डॉकिन्स ने एक इन्टरव्यू में कहा है कि वो कल्चरल ख्रिश्चन है. ख्रिश्चनिटी का जो धार्मिक भाग है उससे वो ताल्लुक नहीं रखते. लेकिन जो सांस्कृतिक भाग है उससे वो ताल्लुक रखते है. इससे उनको कोई ऐतराज नहीं है. तो क्या आप भी सभी परंपराएं, सभी त्यौहार मनाते है?
जावेद अख्तर : देखिए, मैं जो तमिलनाडु का मुस्लिम है उसका सांस्कृतिक साथी नही हूं. जो केरला में हैं, बंगाल में हैं उनके साथ नहीं हूं. उनसे मेरा कोई आइडेंटिफिकेशन नही है. मेरे आइडेंटिफिकेशन के लिए जरूरी है कि आदमी को हिंदी और उर्दू बोलना आना चाहिए. मैं जाऊंगा अमेरिका – वहा मुझे कोई मुसलमान मिलेगा और एक यूपी का रहनेवाला ब्राह्मण मिलेगा, तो मेरा रिश्ता यूपी वाले ब्राह्मण से बनेगा. उस मुसलमान से नहीं बन सकता. मैं लखनऊ का हूं. वहां पर अगर गांव, तकिया, गजल, बिरयानी, ये अगर मुस्लिम कल्चर है, तो मैं मुस्लिम कल्चर से हूं. वो किसी भी जात में पैदा हुआ हो, वो मेरे कल्चर का है. इसके अलावा कोई कल्चर है तो वो मेरा नहीं है – वो जिसका है उससे पूछो. मैं तमिलनाडु गया और मिला किसी उमर अब्दुल्ला नाम के आदमी से. और वो तमिल बोलता है. तो मै क्या करूँ ? मेरे काम का नहीं है वो. आपको बताता हूं, आइडेंटिटी कैसे बनती है. एक बार मुझे कराची में बुलाया गया था. तो मैं गया, तो वहां सिंध पार्टी के सेक्रेटरी थे. उन्होंने अपने घर पे डिनर के लिए बुलाया. वहा पे जान पहचान हुई. “ये हमारे दोस्त है भगवान दास साहब, और ये एम एन ए ( Member of National Assembly)”. मेरा पहला रिएक्शन था कि अरे, ये मेरा आदमी यहाँ कहा फंसा हुआ है. पहले मेरी एक प्रोटेक्टिव फीलिंग हुई उसके बारे में. हमने थोड़ी देर बात की इधर उधर की. उससे मेरा रेपो एक सेकंड में हो गया. उसने मुझे घर बुलाया, अपने बच्चों से, मम्मी से मिलाया. और वहां जो बाकी बैठे थे वो उर्दू भी बोल रहे थे और मुसलमान नाम भी थे उनके. लेकिन मेरा आइडेंटिफिकेशन उससे ज्यादा हुआ कि ये मेरा आदमी इधर फंसा हुआ है. डिपेंड करता है कि किस परिस्थिती में आप किससे मिलते हैं. आपकी आइडेंटिटी बदलती रहती है. अगर मुझे यहां कोई लखनऊ का मिलेगा तो मैं उससे बहुत अच्छे से मिलने लगूंगा, अगर सिलिकॉन वैली में मुझे कोई महाराष्ट्रीयन मिलते है तो, “अरे वा! आप यहाँ कैसे?” ऐसे मिलूंगा. मुझे पता नहीं था कि सिलिकॉन वैली में इतने महाराष्ट्रीयन है. तो ये है आइडेंटिटी. जो मेरी मुस्लिम आइडेंटिटी है वो यूपी की, अवध की है, उर्दू की है, ग़ज़ल की है, शामी कबाब की है, बिरयानी की है, बस! और उसी के साथ में पूरा नास्तिक हूं।
ज्ञानेश पाटील : सर जो धर्म और पितृसत्ता है ये एक ही कौम की दो बाजू हैं. तो नास्तिकता स्त्रीवाद की तरफ कैसे देखती है?
जावेद अख्तर : देखिए, मैं एक हार्डकोर फेमिनिस्ट हूं. और ये जो एपिक बनी ये हिन्दुस्तान में वूमेन राइट पे लड़ने के लिए उनका एंथम मैंने लिखा है. मुझे बहुत ज्यादा बुलाया जाता है वूमेन एंपावरमेंट पर बोलने के लिए. And this topic is close to my heart. इतनी मेरे दिल में मोहब्बत और इज्जत है, तो मै विश्वास करता हूं कि, पचास साल लगे या सौ साल लगे ये दुनिया औरतें टेकओवर कर लेंगी. और इसका कारण मै बताऊं? ऐसा नहीं है कि पोएटिक जस्टिस है. पोएटिक जस्टिस नहीं है, लॉजिकल होती है चीजें।
दो चीज़ें हुई हैं, जिनका देखने में आपस में कोई संबंध नहीं. एक, दुनिया के हर समाज में औरत को एक छोटी सी जगह पर कैद कर दिया गया है. बस एक इसी एरिया में तुम घूम फिर सकती हो, इसके आगे तुम नहीं जा सकती, इससे आगे तुम काम नहीं कर सकती. अरे भाई, चलो, औरतों को साइंस नही आती है, वो मैथमेटिक्स में कमजोर होती हैं – वैसे ये सब झूठ है – लेकिन मान लेता हूं. उन्हे रंग का तो सेन्स होता है, उन्हे म्यूजिक का तो सेन्स होता है, दुनिया के ज्यादातर फोक सॉन्ग्स औरतों ने बनाए हुए है. अगर औरतों को रंग का सेन्स होता है तो उनमें से कोई पिकासो, रांबरा, मतीज क्यों नहीं पैदा हुई दुनिया में ? क्योंकि तुमने उसे पैदा होने ही नहीं दिया. अगर उसे म्यूजिक का सेन्स था तो उनमें से कोई मुजावन, कोई बाख क्यों नहीं हुई? इसीलिए कि तुमने उसे बनने ही नहीं दिया. हकीकत ये है. धीरे धीरे वो बंधन टूट रहे हैं. लेकिन अभी भी बहुत लंबा रास्ता है, आप ये मत समझिए कि ये सब हो गया है.
और ये सब कहने के बाद मै एक राइट टर्न लेता हूं और एक सवाल औरतों से पूछता हूं. आप लोगों को अक़्ल नहीं है कि सारे मज़हब आपके खिलाफ है? प्रोब्लम ये नहीं है कि आप लोग मर्दों से ज्यादा धर्म मानते हो. प्रोब्लम बताता हूं क्या है. सच ये है कि इन्हे अच्छा पति नहीं मिलता इसलिए अच्छा भगवान ढूंढती हैं. अगर सच में नहीं होता तो झूठ में ही हो जाए कुछ. ये सारे धर्म जो आप अपने बच्चों को सिखाते हो, आप क्या तैयार कर रही हैं ? आप एंटी वूमेन बना रही हैं बच्चों को. दुनिया में हर धर्म एंटी वूमेन है. वो औरतों को सेकेंडरी समझता है. जब मै अख़बार में पढ़ता हूं कि दहेज़ के कारण लड़की जला दी गई, तो सच कहता हूं मुझे उस बच्ची के मां-बाप से नफ़रत हो जाती है. ये लड़की ससुर, सास और ननंद ने नहीं जलाई है, ये लड़की मां-बाप ने जलाई है. ये कैसी लड़की आपने पाली थी कि वो जल गई?
देखिए कि हम अपनी बेटियों को कैसे पालते हैं. चाइना में एक डिश है. अंडे से जैसे ही चूज़ा निकला, उसको एक लकड़ी के केस में बिठा देते हैं और मेवा खिलाते हैं. वो चूज़ा बड़ा हो जाता है तो उसे फिर बड़े केस में बिठाते हैं, फिर मेवा खिलाते हैं. फिर वो और बड़ा होने लगता है. फिर एक दूसरी केस… फिर मेवा. करते करते पूरा मोटा, ताजा चिकन बन जाता है. उसने जिंदगी में मूव्ह नहीं किया कभी, वो एक केस से दूसरे केस में शिफ्ट होता रहा. उसके बाद उसे पकाया जाता है. तो उसमे हड्डी ही नहीं होती. That is how we bring patriarchy. आप अपनी बेटियों की हड्डियां ही नहीं बनने देते, तो जलेगी नहीं तो क्या होगा? मेरी बेटी को जलाकर दिखाए कोई, इतना मारेगी कि सीधा कर देगी.
“बेटी, अब तुम जा रही हो. तुम पराई हो गई.” क्यों पराई हो गई? जरा सी गड़बड़ हो फौरन आ जाना वापस, मैं तो यही सिखाऊंगा अपनी बेटी को. तो ये एक गलत मोरलिटी है. एक दासी का रूप… हर धर्म में बीवी को एक सपोर्टिंग कास्ट में लिया गया है. आप ये बच्चों को सीखा रही हैं और कहती हैं हमे समानता चाहिए. तो क्या अगली पीढ़ी को समानता मिलेगी? No thank you to religion कि औरते यहां तक पहुंची हैं, in spite of a religion, not because of a religion. तो कम से कम अब सोचिए. धर्म सिखाकर आप दुश्मनी करते हैं अपने बच्चों से, लड़के से भी और लड़की से भी.
इंटरव्यूअर: एक सवाल ये आया है कि जब आपका जन्म हुआ तो आपके वालिद ने आपके कान मे कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ा था. आपने जोया और फरहान के कान में क्या पढ़ा था?
जावेद अख्तर: मैंने तो उनके कान मे कुछ भी नही पढ़ा. लेकिन, शायद यही बात मैं थोड़ी देर पहले कह रहा था कि, मेरे लाइफ में रीलीजन है. मेरी लाइफ में रीलीजन एक विलन की तरह है, जिससे मैं लड़ता हूं. और जिसके बारे में मैं सोचता हूं तो मुझे गुस्सा आता है. और मैं लोगों को कन्विन्स करना चाहता हूं. पर मेरे बच्चों की लाइफ में धर्म है ही नहीं. समझो वो मान भी ले कि धर्म बुरा है. लेकिन बुरा होने के लिए भी होना तो चाहिए ना. वो है ही नहीं. फरहान की दो बेटियां पैदा हुई. हॉस्पिटल मे जो फॉर्म था, वहां लिखना था रीलिजन. उसके आगे उसने बगैर किसी तकलीफ के या रेवोल्यूशनरी बने बगैर ‘नॉट एप्लिकेबल’ लिखा. भाई है ही नहीं हमारा कोई मज़हब. उसमे कोई गुस्सा, कोई इंटेंसिटी, कोई प्रेशर भी नहीं था कि हमारा कोई धरम नहीं, बस नहीं है. तो मेरे बच्चे टोटली इरिलिजिएस हैं. उनका कोई संबंध ही नहीं है धर्म से. उनको मालूम ही नहीं है कि ये सब भी दुनिया में है.
अभी मेरी बेटी ने वो सीरिज बनाई – ‘मेड इन हेवन’. तो उसमें एक मुस्लिम फैमिली दिखाते हैं. वो जो बीवी है उसका हसबैंड दूसरी शादी कर रहा है. तो वो कोर्ट मे जा रही है – ये उस सीरिज में है. तो अब ये निकाह का एक अच्छा सीन था. तो उसने मुझे फोन किया की, “पा, how this nikaah happens?” क्योंकि उसने ऐसा कभी देखा ही नहीं है अपनी लाइफ मैं. तो मैंने कहा, “भाई, मुझे भी ठीक से पता नहीं है. मैं दोस्तों से पूछपाछ के बताऊंगा।” उसमे बोलते क्या है, करते क्या है – भिजवा दिया. मगर उसे निकाह उतना ही फैमिलर था जितना कि अंटार्क्टिका मे इस्किमो जैसे शादी करते हैं. उनको पता ही नहीं है. उनका कुछ संबंध ही नहीं है. उन्होंने अपनी जिंदगी में घर में कोई रिलिजन जैसी बात देखी ही नहीं है.
मुझे याद है, फरहान आठ साल का था और आठ साल का बच्चा बहुत बड़ा बच्चा होता है. ये कोई ऐसा नहीं होता कि कोई घुटनों पे चल रहा है. मुझे अच्छे से याद है. एक दिन वो स्कूल से लौटकर मेरे पास आया, बहुत ही हैरत से. और उसने पूछा, “paa, Are we Muslims?” तो उसे आठ साल की उमर में पहली बार स्कूल में किसी ने कहा होगा. बड़ा मुश्किल होता है बच्चों को समझाना. इसलिए कि आप उनको इरिटेट करते हैं, भगवान, अल्लाह, गॉड है ही नहीं! घबरा जायेगा बच्चा. क्योंकि उसकी सारी टीचर्स जो कहती हैं कि गॉड है. साथ के बच्चे कहते है कि गॉड है. और बाप बता रहा है कि गॉड नही है. तो संभालकर चलना पड़ता है. मैंने कहा, “देखो बेटा, क्या होता है, कि कोई भी आदमी पैदा हो तो किसी ना किसी स्थिती में तो पैदा होगा ना. वो मुंबई में पैदा होगा, पूना में पैदा होगा, जबलपुर में पैदा होगा, कलकत्ता में पैदा होगा. कोई तो सिटी होगी, गांव होगा, कोई जिला होगा. कहां पैदा होगा? कहीं तो पैदा होगा ना? इसी तरह लोग किसी ना किसी कम्युनिटी में पैदा होते हैं. तो उसका कोई महत्त्व नहीं है. ये चीज़ क्या बहुत महत्त्वपूर्ण है कि तुम किस शहर में पैदा हुए? महत्त्वपूर्ण ये है कि तुम क्या करते हो, क्या नहीं करते हो. अब तुम्हारा दोस्त कहीं और पैदा हुआ था, किसी और शहर में. तो? इसी तरह ये जो कम्युनिटीज है, ये पॉपुलेशन की अलग अलग सिटीज है. कहीं तो पैदा ही होना था. तो तुम यहां हो गए. So What? एक और बात वो दोनो बच्चे मुझे आकर पूछते थे, “Paa, God gets angry on this, if we do this?” वो बहुत छोटे थे, पांच छ: साल के. तो मैंने उनको कभी नहीं कहा कि There is no god. मैंने कहा, yes yes God has to, But you can leave God. गॉड से प्रोब्लेम नहीं है. लेकिन जब आप गॉड को क्लासिफाई कर देते हैं और उसे particular बना देते हैं तब प्रोब्लेम शुरू होता है. गॉड जॉनर है एक. ये बड़ा होगा ठीक है. बच्चे जैसे फेअरी को भूल जायेंगे, जैसे सांता क्लॉज को भूल जायेंगे, वैसे गॉड को भी भूल जायेंगे. जहाँ इसे आपने क्लासिफाई किया ये वाला गॉड, वो वाला गॉड, फिर गडबड है. जो भूत होते हैं, दोपहर में बच्चो को ले जाते हैं. ये सबको भूल जायेंगे लेकिन भगवान को नहीं भूलेंगे. तो इसको कोई particular वाला गॉड मत बताओ. कि वो वाला गॉड है, फिर वो अपने ही निपट जायेगा.
इंटरव्यूअर : एक सवाल आया है कि, आपके जो टीवी पे डिबेट्स होते हैं रिलीजियस गुरूज् के साथ – जग्गी वासुदेव, या रविशंकर या किसी के साथ. तो क्या इन डिबेट्स के बाद उनके डिसायपल्स के आपको थ्रेट्स आते है?
जावेद अख्तर: वो तो देखिए, मुझे बड़ा आराम है. मैं अभी दिखा दूंगा, फोन मेरी जेब में हैं. मुझे दोनो तरफ़ से गालियां आती हैं. तो जिस दिन एक तरफ़ से गालियां आना बंद हो जाएंगी उस दिन में परेशान हो जाऊंगा, कि अभी मैं कुछ गड़बड़ कर रहा हूं. ये क्या हो रहा है? दोनो तरफ से कैसे नहीं आ रही हैं ? तो वो कुछ न कुछ चलता रहता है. कभी इधर कभी उधर, कभी आगे कभी पीछे. चार दफा बॉम्बे पुलिस ने मुझे प्रोटेक्शन दिया है. मांगा मैने एक बार भी नहीं था. मैं दिल्ली से वापस आया, तो घर के बाहर जीप खड़ी है, पुलिसवाले लॉबी में बैठे हुए हैं. मैंने पूछा, “क्या हुआ?” तो बोले, “साहब ने बोला कि कुछ threat है, इसलिए ये सब।” इससे पहले भी हुआ था. पुलिसवाले खुद भेज देते हैं.
चार में से तीन बार मुझे थ्रेट आया मुसलमानों की तरफ से और एक बार हिंदुओं की तरफ से. तो अभी हिंदुओं के पास अधिकार है दो और बार करने का. तो तीन इधर के हैं, तीन उधर के भी हो जाएंगे. अब क्या करें ? एक जमाने में तो लगता था, कभी भी मर्डर हो जायेगा. इतना बड़ा थ्रेट था. ये हिजाब पे जो बहस हुई थी, बुर्के पे हुई थी. तो देखिए, हिजाब इतना भी बुरा नही है. सिर्फ सर ढंकता है. यूरोपियन औरतें भी बांधती है. कम से कम चेहरा तो दिखता है. लेकिन ये बुर्क़ा जो है, शटल कॉक की तरह. लगता है एक शटल कॉक चली जा रही है काले रंग की. This is wrong. आप चेहरा नहीं छुपा सकते किसी का. This is against security, this is against dignity of society – not only yours. आपकी डिग्निटी तो गई. लेकिन सोसायटी में क्या सिर्फ लुच्चे घूम रहे हैं ? आपकी उम्र हो चुकी है छप्पन साल और साठ साल की. आप अपने आप को छुपा के क्यों फ्लैटर कर रही हैं ? कौन देखने वाला है आपका फेस? ये मुझे पसंद नहीं है. ये बुरका जो है ना, This is unbearable. और बाकी ये जो है स्कार्फ बांधे हुए हैं सर पे, क्यों बांधे हुए हैं ? हमारे बचपन में तो हमने कहीं देखा नहीं. मैं अलीगढ़ में रहा हूं. यूनिवर्सिटी में नहीं पढ़ा हूं, लेकिन अलीगढ़ में था. बचपन में भी स्कूल में देखते थे कि, लड़कियां कोई भी नहीं बांधती थीं. कोई नहीं था. लखनऊ में, भोपाल में, जहां मैं कॉलेज में था, कोई लड़की को मैंने हिजाब बांधे नहीं देखा. ये हिजाब जो आया है, ये petro-dollar में लिपटा हुआ आया था, इसी में बांध के लाए थे. तो ठीक हैं, उसका ज्यादा इश्यू भी बनाने की जरूरत नहीं है. हिजाब बांधती हैं बांधने दो, क्या करना है? हमारा क्या बिगाड़ रही है? खुद ही इनके कान मे आवाज कम जा रही होंगी. But this is not a major issue. इश्यू इससे भी ज्यादा बड़े है.
आप लोग अभी बात कर रहे थे पर्सनल लॉ की. देखिए, जो राइट विंग है वो कहता है कि हिंदुस्तान में माइनोरिटीज का अपीजमेंट हुआ. ये बिलकुल बेबुनियाद बात नहीं है, इसमें थोड़ी सच्चाई है. और वो सच्चाई यूं है की, हिंदुस्तान में माइनोरिटीज का जो राइट विंग था उसका अपीजमेंट हुआ. सेक्यूलर माइनोरिटीज़ का नहीं हुआ. अभी मैं आपको कई बातें बताऊंगा, आप बड़े हैरान होंगे. सेक्युलर मुसलमान जो हैं या जो लिबरल मुसलमान है वो किसी भी पार्टी को अपने काम का नहीं लगता, उनके लिए बेकार है. लेकिन वो जो है आंखों में सुरमा लगाए, टोपी पहने, दाढ़ी, ऊंचा पैजामा, ये हैं उनके काम के आदमी! उन्हें ये चाहिए, क्यों? उसका सिंपल रीज़न ये है कि हिन्दुस्तान के ज्यादातर, एक दो परसेंट छोड़ दीजिए, बाकी जो पॉलिटीशियन है हिंदुस्तान के, इरेस्पेक्टिव ऑफ द पार्टी है उनकी हिंदुस्तान में दो लोगो के बारे में ओपिनियन बहुत खराब है. एक मुसलमानों के बारे और एक हिंदुओं के बारे में. वो समझते है ये बड़े घटिया लोग है. अगर हम इस घटिया मुसलमान को साथ लेंगे तो ही आम मुसलमान हमारे पीछे आएगा. अगर कोई पढ़ा लिखा, समझदार मुसलमान लिया तो उनके पीछे कौन आयेगा? वैसे ही अगर एक राइट विंग आदमी से एक स्टेटमेंट आता है ऐसा जो की शॉकिंग हो. इस आदमी ने, इस राइट विंग हिंदू ने ऐसा क्या कह दिया? और पुलिस की हिम्मत नहीं पड़ती उस आदमी को गिरफ्तार करने की. तो क्या पुलिस उस एक अकेले आदमी से डरती है? क्या सरकार उस अकेले आदमी से डरती है? नहीं! वो आम हिंदू से डरती है. वो समझती है, अगर इस घटिया हिन्दू को गिरफ्तार कर लिया तो आम हिंदू नाराज हो जायेगा. तो आम हिंदू के बारे में क्या राय है इनकी? अच्छी राय है? कैसे हो सकती है? तो ये हिंदू और मुसलमानों को बहुत ही घटिया और खराब समझते हैं. और इन्होंने हमेशा यही किया.
शुरू से, जो भी पार्टी पावर में आई है, जो भी पार्टी पावर में नहीं है. इस मामले में उनकी पॉलिसी एक रही है. मसलन शाही इमाम! अरे, शाही इमाम के पास कोई लीडर या हिंदुस्तान का होने वाला प्राइम मिनिस्टर जाए मतलब इस लीडर की आम मुसलमानों के बारे राय क्या होगी? के ये शाही इमाम लीडर है या हो सकता है मुसलमानों का? तो इसका मतलब तुम्हारी राय खराब है आम मुसलमानों के बारे में.
और वो हिंदू लीडर भी पैदा हुए हैं एक्सट्रीम राइट विंग के जिन्होंने कहा, “ये दंगे जो हुएं हैं, मैने करवाए हैं. ये मैने अपने लड़के भेजे थे दंगे के लिए।” आप जानते है ये बात और सरकार की हिम्मत नहीं हुई उन्हें अरेस्ट करने की. क्यों? क्योंकि उनकी राय खराब है आम हिंदुओं के बारे में. कि अगर हमने इस गलत आदमी को अरेस्ट किया तो आम हिंदू तो नाराज हो जाएंगे. तो हिंदुस्तान के पॉलिटीशियन के लिए जरूरी है की, वो आम जनता के लिए हिंदू और मुसलमान दोनों के लिए अपनी ओपिनियन थोड़ी सी बेहतर करे. आम जनता ने उन्हें कोई रीज़न नहीं दिया है, सच बात तो ये है.
इमरजेंसी में ये शाही इमाम जो था, इसे कौन लाया था? इसे लाए थे अटल बिहारी वाजपेई जी और आडवाणीजी. पहला वहां पर जलसा हुआ था, जिंदगी में पहली बार ये इतने बड़े प्लेटफार्म पर इन दोनों के साथ था शाही इमाम. तो आपको शाही इमाम ही मिला था और कोई नहीं मिला? तो आपकी क्या राय होगी आम मुसलमानों के बारे में? और उस इमरजेंसी में कांग्रेस के खिलाफ अगर लैंपपोस्ट खड़ा कर देते तो भी वो जीत जाता. शाही इमाम ने फतवा दिया कि ये तीन इलाके जो दिल्ली में है, या चांदनी चौक का जो एरिया है इसमें तीन मुसलमान खड़े हुए है, उनको आप वोट दीजिएगा. वो तीनो हारे. ये मेरी राय नहीं है इतिहास है, आप देख लो. तो ये है अपीजमेंट.
१९५६ में आया हिंदू कोड बिल. It was very timid, very weak, बहुत ही जरा सा था. उसके उपर जनसंघ ने हंगामा कर दिया कि आप ये क्या कर रहे हैं ? हमारा हिन्दू धर्म भ्रष्ट कर रहे हैं आप? लेकिन वो बिल आया और उसे पास किया गया. और उसके बाद उसे धीरे धीरे सुधारा गया. २००५ में उन्होंने बेटी को भी equal co-partner प्रॉपर्टी में – heritate property और self required property – दोनों में बराबर का पार्टनर बनाया गया. धीरे धीरे किया मगर किया ना आपने? आपने मुस्लिम पर्सनल लॉ को हाथ क्यों नहीं लगाया? आप तो सेक्युलर है. आपके लिये तो दोनो लॉ बराबर होने चाहिए. मुस्लिम पर्सनल लॉ १९३७ में बना था. और कमिटी वाज हेडेड बाय अ ब्रिटिशर. वो जो बना था लॉ, वो आज तक वही है. जिसमें पहली बार दखल दिया हैं प्रेसेंट गवर्मेंट ने – और ट्रिपल तलाक को बंद किया. वरना इतने बरसों तक आपने उसे हाथ नहीं लगाया. क्यों? आप तो सेक्युलर हो? और आपने ये हिंदू कोड बिल बनाया, बदला और उसे सुधारा. फिर इसमें क्यों आपको हिचकिचाहट थी? तो आप अपीज कर रहे थे ना फंडामेंटलिस्ट को? भुगतिए! ये जो हो रहा है, इसमें एक रियलिटी है. अब ये दूसरा हो रहा. अब हिंदू फंडामिंटलिज्म एपीज किया जा रहा. वो भी इक्वली गलत है.
ये बोलते है मुसलमान आतंकवादी होते हैं. हिंदुस्तान में २० करोड़ मुसलमान हैं. ये कश्मीर का पूरा प्रोब्लम जब पीक पीरियड में था, तो इंटेलिजेंस की रिपोर्ट थी कि कोई दस से बारह हजार मुजायदीन है अक्रॉस दी बॉर्डर, दोनो तरफ मिला के. हिंदुस्तान का एक टका मुसलमान अगर आतंकवादी हो तो इस मुल्क में २० लाख आतंकवादी होंगे. अगर आधा टका हो तो १० लाख होंगे. अगर ०.२५ टका तो पाच लाख होंगे. दस बारह हजार थे वो. और you are willing to do this कि भैया इसके घर नहीं जाना चाहिए. क्या मालूम ये आतंकवादी हो, क्या हो? या क्या आपको पट्टी पढ़ाई गई है? और आपने पढ़ भी ली है? तो ये है क्या? ये एक्सट्रीमिस्ट खराबियाँ करते हैं, एक्सट्रीमिस्ट गलत स्टेटमेंट देते हैं, गलत स्टैंड लेते हैं. मतलब they are dying कि ये तुरंत तलाक़ बदला ना जाए. जब की ये बांग्लादेश में बैन है, ये इजिप्ट में बैन है, ये लीबिया में बैन है, ये सीरिया में बैन है. वो तो मुस्लिम देश हैं भाई, उन्होंने बैन किया हुआ है. हिंदुस्तान में क्यों था? माइनोरिटीज का खयाल था? माइनोरिटीज का ये खयाल था कि वो अपनी औरत को एक मिनिट में घर से बाहर निकाल दे? वा! क्या खयाल है. और वो औरत कही रही है की, मैं तो हूँ ही नहीं ना इंडिया की नागरिक, वो तो आसमान से उतरी है. तो ये सारी गलतियां की गई हैं, जिसे हम भुगत रहे हैं. शायद ये सरकार बदल जाए लेकिन इतना तो रखिए कि अब ये गलती ना कीजिएगा. आपको डर क्या है? मैं पूछता हूं, मैने अभी टीवी पर पूछा था की, ये जितने मुल्ले हैं, जितने हरी टोपी वाले हैं they will send their children to America. इन्हें अमेरिका का बड़ा फेसिनेशन है. तो वहां तो कॉमन सिविल कोर्ट है. तो वहां कैसे रहते है और क्यों जाना चाहते हो? तुम सिंगापुर में कैसे रहते हो? तुम हांगकांग में कैसे रहते हो? कि तुम्हे इंडिया में ही चाहिए? बाकी जगह चलेगा. तो आप इनके साथ इंसाफ तब कर सकोगे जब आप इनके गलत बातों को साफ बोलेंगे. तो ये बर्दाश्त नहीं होगा. ठीक है, हम तो हमारा घर भी नहीं जलने देंगे, दुकान भी नहीं जलने देंगे और तुम तुम्हारा ये जो कानून, जो गलत है ये भी नहीं रखेंगे. आप उल्टा काम करते है, यहां उनका गलत कानून रखने देते हैं और वहां उनकी दुकाने जलने देते हैं.
पच्चहत्तर साल से मैं तो यही देख रहा हूं. तो दोनो जगह आप गलत काम कर रहे हैं. आपसे मतलब – establishment! वो किसी भी पार्टी का हो, उन सब ने एक लाइन से यही काम किया है. कोई नहीं है जो कहे हमने नहीं किया. तो ये बंद होना चाहिए. ये तमाशा तब बंद होगा जब आप ईमानदारी से, सच्चे दिल से सेक्युलर होंगे. वो माइनोरिटी हो या मेजॉरिटी हो. मेजॉरिटी ने ठेका नहीं लिया है सेक्युलर होने का, उतनी ही जिम्मेदारी माइनोरिटीज की भी है और वो उनको सुनना पड़ेगा. वरना वो भी नहीं करेगें, वो बोलेंगे भाई हम ही क्यों? खत्म!
इंटरव्यूअर : ऑडियंस में से एक सवाल आया है कि यूजुअली जो सोशल रिफॉर्म होता है वो अगर किसी धर्म के अंतर्गत मामले के बारे में हों तो, तो उसी धर्म के लोग कुछ विरोध कर के कुछ रिफॉर्म बनाते हैं ।
जावेद अख्तर : आप आइए मुंबई, किसी एक दो मौलवी से मिलवा देता हूं, ठीक हो जाएंगे आप. कभी नहीं करेंगे. ये मर जाएंगे, उनमें से काफी ऐसे है जो मर जाएंगे कुछ दिनों में लेकिन बदलेंगे नहीं. ये आप भूल जाइए. इन पे आपको इंपोज ही करना पड़ेगा. आप ये ऐसे कह रहे हैं जैसे हार्ड कोर हिंदू या राइट विंग हिंदू जब कहते हैं कि हाँ भाई हिंदू कोड बिल बनना चाहिए तभी आप बनाते. ऐसा तो आपने नहीं किया. आपने तो उनके मर्जी के खिलाफ बनाया था. वो तो इतने लड़, मर रहे थे कि गिनतियां नहीं. आपको कोई इंसाफ का लॉ ऐसा नहीं हो सकता कि जो हर एक को खुश करे. impossible है ऐसे लॉ का बन जाना?
बीजेपी ने तुरंत तलाक़ बंद कर दी, खराब कानून बना के की है लेकिन की ना? क्या किया इक्स्ट्रीमिस्ट ने ? कुछ नहीं. आप इक्स्ट्रीमिस्ट को जितना ज्यादा ढील देंगे वो उतना ज्यादा सर पे चढ़ जाएंगे. आप ये बोलोगे, भैया देखो ये सेक्युलर मुल्क है, यहां ये स्वीकार है और ये स्वीकार नहीं रहेगा. हम आप की जो सही माँग है वो तो हम मानेंगे, उसके लिए हम लड़ेंगे. लेकिन, हम तुम्हारी गलत मांग को नहीं मान सकते. ये इक्स्ट्रीमिस्ट गलत मांग मानते है और सही जरूरतों पे कुछ नही करते हैं. तो ये दोनो गलत काम करते हैं.
इंटरव्यूअर : सही! तो सर प्रिसाइज सवाल ये था कि, हमें मुस्लिम समाज में से दूसरे हामिद दलवाई कब मिलेंगे? क्योंकि तो वो काफी एक्सटेंड तक इंटरनल….
जावेद अख्तर : देखिए, ऐसा नहीं है कि हुए नहीं, किसी भी वक्त में, ये आज से नहीं मैं कहता हूं साढ़े तीन सौ, चार सौ साल से हैं. अगर आप देखेंगे, मुस्लिम राइटर स्कूल लीजिए, मुस्लिम पोएट स्कूल लीजिए. They are extremely secular people. दुनिया में जितनी भाषाएं है, वो शुरू होती है धार्मिक कविताओं से hyme से, भजन से, in prays of the deities, in prays of the barb’s. उसके बाद धीरे धीरे दूसरे टॉपिक भी उसमे आना शुरू होते हैं. चाहे रोमांस हो, रोमांस से आगे जाके सोशल इश्यू हो. उर्दू कविता विश्व में एक ऐसी कविता है जो पहले दिन से agnostic थी, anti-religious थी, उसमें narrow mindedness थी. मैं आपको साढ़े तीन सौ- चार सौ साल पहले के शेर सुनाऊंगा, तो आप कहेंगे आज अगर लिखा तो खून हो जायेगा उसका, ऐसी कविताएं हैं. ये साढ़े तीन सौ साल पहले का शेर है. ये मीर का एक contemporary था।
टूटा जो काबा कौन सी ये जा-ए-ग़म है शैख़
कुछ क़स्र-ए-दिल नहीं कि बनाया न जाएगा
शेख़, वाइज, नासे, जाहिद जो है ये सब धार्मिक शख्सियतें थी जिनका अपमान किया जाता है उर्दू गजल में. They are the villans और हीरो आशिक और रीन्द. ये हीरो हैं. तो अगर काबा टूट गया है, खत्म हो गया है तो उसमे क्या गम की बात है, जाएँ ना. कोई गम नहीं.
अच्छा नजात है, उर्दू लब्ज़ हैं मोक्ष की हिसाब से. अगर मोक्ष मिलेगा तो जन्नत में चले जाएंगे और अगर मोक्ष नहीं मिला तो जहानुम में जाएंगे. नजात! मीर का शेर है, वो भी तीन सौ साल पुराना,
जाए है जी नजात के ग़म में – अगर मेरा दिल नजात ना मिलने के गम में लगा रहता है तो
जाए है जी नजात के ग़म में
ऐसी जन्नत गई जहन्नम में
अरे भाई कुरान में लिख रखा है न, आपकी जन्नत ऐसी होगी, वैसी होगी वैगरा वैगरा. तो गालिब ने कहा
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत
लेकिन, दिल के बहलाने को गालिब ये खयाल अच्छा है.
तो गालिब कुरान को नकार रहा है न.
अच्छा तो दूसरी तरफ से भी मुझे किसी ने कापी दिखाई थी “हिंदुस्तान हमारा” की यहां पर. ये दो वॉल्यूम जो हैं मेरे पापा ने एडिट किए थे. हिंदुस्तान हमारा! करीब सौ साल की उर्दू पोइट्री का सिलेक्शन है. जो हमारे यहां की देवी देवताओं पे, हमारे त्योहारों पे, हमारे शहरों पे, हमारे रुत पे, हमारे संस्कृति पे जो कविताएं सालों, बरसों, सदियों से हुई हैं. आपको कृष्ण और राधा पे इतनी उर्दू कविताएं मिलेंगी कि हद नहीं. शिव पार्वती पे कितनी तो मिलेगी. होली, जन्माष्टमी, दिवाली पर कितनी मिलेंगी ! मैं पूरे दावे के साथ कहता हूं के पूरे हिंदुस्तान की किसी भाषा में होली पे उर्दू से अच्छी कविताएं नहीं मिलेंगी. दावे से बोल रहा हूँ मैं. और आप वो दिल्ली के राजकमल पब्लिशिंग हाउस की किताब मंगवा सकते हैं, “हिंदुस्तान हमारा”! दो वॉल्यूम में है. आप वो मंगा के उसकी सूची देख लेंगे तो उसी से परेशान हो जाओगे. हिंदुस्तान का कोई पॉलिटिकल फिगर नहीं है, हिंदुस्तान जबसे आजाद हुआ, कोई ऐसा मौका नहीं है चाहे वो भारत छोड़ो का हो, चाहे वो असहकार का हो, गांधीजी की मरण व्रत हो, चाहे कोई भी मौका हो आपको उसमें उर्दू में कमाल की कविताएं मिलेंगी. जोधा बाई हो, बनारस का घाट हो, गंगा जी पर हो – आपको जो कविताएं मिलेंगी वो अविश्वसनीय है. इस रुख को कोई जानता नहीं है. तो ये सेक्युलर लोग थे तो ये लिखा था. और वो इतने बड़े कवि बने क्योंकि श्रोता, प्रेक्षक सेक्युलर थे. वरना ये बड़े नही बनते. जो उर्दू सुनते थे उन्होंने इन कविताओं, इस शायरी की प्रशंसा की तो उन श्रोताओं में भी तो सेक्युलरिज्म होगा.
आपने इन सबको भुला के तीन मुल्ला पकड़ लिए. मुल्ला हिंदुस्तान के मुसलमान का प्रतिनिधि नहीं हैं. हिंदुस्तान का प्रतिनिधि है कपड़ा बुनने वाला मुसलमान, बुनकर! जो कैंची बनाता है, जो मेरठ में चाकू बनाता है, जो भागलपुर में रेशम का काम करता है, जो बनारस में साड़ी बनाता है. तेरा चौदह टका मुसलमान में से ना पच्चास टका से ऊपर रजिस्टर कलाकार मुसलमान है इंडिया में. ये हैं लोग, इनसे कभी बात भी नहीं की गई. आप इतिहास पढ़ लेना ये मेरी राय नहीं है, जब पाकिस्तान की घोषणा हुई थी ३० हजार बुनकरों ने दिल्ली में आ के जुलूस निकाला था इसके खिलाफ़. कि हमको नहीं चाहिए पाकिस्तान! हम बनारस में खुश है. इसका कोई जिक्र नहीं करता. एक पार्टी बनाई गई थी, जिसके लीडर का कत्ल कर दिया गया. तो ये फलाना वोटिंग हुई थी, उसमें सब मुसलमानों ने मुस्लिम लीग को वोट दिया था. कौन सी वोटिंग थी वो ? वो जो सिर्फ ऐसे लोग कर सकते है जिनके पास प्रॉपर्टी थी. वो यूनिवर्सल फ्रेचाइज नहीं था. तो ये बड़े बड़े जमीनदार, नवाब, अमीर बिजनेसमैन बोहरी और ये अमीर लॉर्ड्स बॉम्बे के – ये थे पाकिस्तान समर्थक लोग. इन्हें नोट पे अपनी तस्वीर छपवानी थी. उन्हें मालूम था यहां तो गांधीजी की छप रही है. तो एक मुल्क ऐसा भी तो हो जहाँ मेरी तस्वीर छपे. आम आदमी नहीं था साथ में इनके. ये तो चले गए लेकिन आम आदमी इधर रह गया और सजा अब इसको मिल रही है. Which is wrong?
आप एक आम हिंदू को ले लिजिए, वो किसी जगह काम करता है. वो चाहें पुलिसमैन हो, चाहें दुकानदार हो, किसी मुन्सिपल स्कूल में पढ़ाता हो. उसके पास टाइम है? उसके पास ऊर्जा है? ये सब गलत काम करने का. उसको घर संभालना है, अपने बच्चो को अच्छे स्कूल भिजवाना है. अच्छा हम पुलिस से आज सिंपाथाइज कम करते हैं. आप एक आम पुलिसवाले की हालत देखिए क्या है? एक जगह पे एक बहुत बड़ा प्लॉट लिया गया था, मुंबई में. यहाँ जो जूनियर पुलिस ऑफिसर है उनके क्वार्टर्स बनेंगे. वो जमीन बहुत प्यारी थी, वहां सब ऑफिसर्स के फ्लैट बन गए. और नीचे डिपार्टमेंटल स्टोर बन गया है, बड़ा सा. तो उससे इतना पैसा मिलता है कि इन्हे महीने का मैन्ट्नन्स का पैसा भी नहीं देना पड़ता. तो घर नहीं है आम पुलिस वाले के पास, अठारह बीस घंटे तक आप उनसे ड्यूटी कराते हैं. ऐसा नहीं है कि पुलिस को आप विलन बना के देखें. आम आदमी है वो – हिंदू है की मुसलमान है, वो जिंदगी से जूझ रहा है. वह दो वक्त की रोटी, बच्चे को अच्छा स्कूल या बीवी को ठीक इलाज़ – यही नहीं करा पा रहा है. उसके पास कहाँ फुरसत है बाकी कामों की. लेकिन आप उसे ऐसी जगह डाल देते हैं कि इसके पास चारा ही नहीं है. उसकी बाकी पहचान आप कुचल देते है. उसको सिर्फ बता देते है तू हिंदू है या मुसलमान है. उसकी तो पच्चीसों पहचान है.
भगवान दास से जब में मिला था तो मेरी कुछ और पहचान थी, जब में कविताओं की महफ़िलों में बैठता हूं तो मेरी कोई और पहचान होती है, जब मैं फिल्म का राइटर हूँ तो कोई और. मेरे पास कितने डायरेक्टर हैं, मैं चालीस पैंतालिस सालों से शायरी कर रहा हूं. आज तक एक डायरेक्टर ने भी नहीं पूछा कि, आप कविताएं भी लिखते हो? एक शेर सुनाईये ऐसा उन्होंने कभी नहीं कहा और ना हि मैनें सुनाया. मैं क्यों तकलीफ दूं बिचारों को. वो अपने गाने की बात करते है, मैं गाना लिख देता हूं, वो एक अलग डिपार्टमेंट है. और हमारे दूसरे लोग है जैसे यहाँ हम बैठे है, ये कोई दूसरी दुनिया है. तो अलग अलग मुकाम पे आपकी अलग अलग पहचान होती है. मुझे क्रिकेट से इंट्रेस्ट है, टेनिस से इंट्रेस्ट है – वहा कोई और दोस्त हैं मेरे. आप क्या करते हैं, इस सारी पहचानों को कुचल देते हैं. बस एक, जो तेरा धर्म है वही तेरी पहचान है. Wrong!
इंटरव्यूअर : जी. काफी सारे सवाल है लेकिन समय की पाबंदी है. हालांकि ये नास्तिक परिषद है लेकिन ये हो नहीं सकता कि जावेद साहब हमारे बीच में हों और हम उनकी कविता ना सुनें ।
जावेद अख्तर: ऐसा कुछ है ही नहीं. मैने अभी बताया कि हमारे प्रोड्यूसर्स ने आज तक नहीं पूछा.
इंटरव्यूअर : मैं आपके सजेस्ट करने से पहले से कह रहा था कि हम आपको सुनेंगे !
जावेद अख्तर: लेकिन मैं फिर भी चाहूंगा कि, मैं इधर आप लोगों से मिलने आया हूं और मुझे बहुत खुशी है. अब एक बात और बताऊं, आप समझेंगे की ये कहानी बना रहा है पर, ये कहानी नहीं है. ७० – ८० के दशक में हमारा काम बड़ा अच्छा चल गया था, तब तक टीवी नहीं थी, ये यूट्यूब नहीं था. तो था क्या, कि जब मेरा नाम बताया जाता था तो लोग बड़ी जोर से हाथ मिलाते थे. लेकिन पहचनता कोई नहीं था. रोड़ से जाता था तो पहचानता कोई नहीं था. हमारी सूरत तो स्क्रीन पे आती नहीं थी. तो होता क्या था, सक्सेसफुल था तो लोग साइनिंग की बड़े बड़े अमाउंट देते थे. कि ये लीजिए, ये पैसा रखिए और हमारे लिए शानदार स्क्रिप्ट लिख दीजिए. हमने ले लिया, खा लिया पैसा और ये एक बार नहीं कम से कम तीन बार हो गया. और अब मैं होटल के कमरे में बैठा हूं, कागज सामने रखा है, पेन है और कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है कि क्या लिखूं? एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन बैठा हूं, उठता हूं फिर बैठ जाता हूं, सोता हूं. तो मुझे ऐसा लगता था कि भाई ये जो मैं लिख सकता था वो मैं लिख चुका हूं, अब में अंदर से खाली हो चुका हूं. ये आदमी जिसने मुझे इतने पैसे दे दिए उस बेवकूफ को तो पता ही नहीं है कि, अब मैं लिख ही नहीं सकता. पैसे मैं इसके खा गया हूं और अब मैं करूँ क्या? तो मैं सोचता था, फैंटेसी थी मेरी, मैने किया नहीं लेकिन फैंटेसी थी मेरी कि मैं किसी दूसरे शहर चला जाऊ, वहा अपना नाम बदल के कोई दूसरा काम करने लगूं, भाग जाऊ यहां से. और हर बार मैं जिस शहर के बारे सोचता था वो था सांगली. अच्छा! सांगली ही क्यों? उस वक्त मुझे ये समझ में नहीं आता था बस बोलता था सांगली चला जाता हूँ. क्योंकि फिल्म इंडस्ट्री में मुझे कोई आदमी नहीं मिला जिसने मुझसे कहा हो कि मैं सांगली का हूं और न मेरी किसी से मुलाकात हुई जो सांगली का था. ये लोग जब आए थे अभी तब मैं पहली बार सांगली के किसी इंसान से मिला. मैं सोचता था कि इस शहर का पेपर में नाम छपता है तो शहर अच्छा ही होगा. बड़ा सुना है यहाँ इंडस्ट्री है और गन्ना वैगरह होता है. और उधर से यहां कोई नहीं आता और इधर से वहाँ कोई नही जाता, तो सबसे सेफ जगह है, वहां मुझे पहचानने वाला कोई नहीं आएगा. तो इतने दिनों में अब आना हुआ, उस बुरे वक्त में आप लोगों ने मेरी मदद नहीं की. तो मैं यहां आया हूं, मुझे कोई जल्दी नहीं है. आप लोगो को हो सकती है, आप सुबह से बैठे हैं. आपको जो कुछ भी पूछना हो, जितनी भी देर हो – मैं उल्टा सीधा जो भी जवाब दे सकता हूं मैं जरूर दूंगा.
प्रेक्षक : आपने पार्टिशन का जिक्र किया. तो मेरा एक जस्ट क्यूरोसिटी भरा सवाल है. क्योंकि पार्टिशन के बारे में मैने बहुत सारा पढ़ा है. तो पार्टिशन के बाद, कोई और भी जवाब दे पाएगा लेकिन आप बेहतर जवाब दे सकते हैं मैनें ऐसा सुना था कि पार्टिशन के बाद मि. जिन्ना इंडिया वापस आना चाहते थे.
जावेद अख्तर : अरे भाई आए होंगे अब क्या किया जाए?
प्रेक्षक : नहीं नहीं. आना चाहते थे. हमेशा के लिए आना चाहते थे. उन्होंने रिग्रेट किया, जो किया है उसके लिए.
जावेद अख्तर: ऐसा तो मैंने कहीं पढ़ा नहीं कि उन्होंने रिग्रेट किया. वो तो बड़ी जल्दी मर ही गए थे. डेढ़ साल के अंदर उनकी डेथ हो गई. उसमे भी वो बहुत बीमार थे. किसी हिल स्टेशन पे थे, उनको तो कोई मिलने भी नहीं जाता था. जब उनकी मौत हुई तब वो कराची में थे शायद. उनकी जो एंबुलेंस थी वो फ़ेल हो गई रास्ते में. तो शायद ४०-४५ मिनट पड़े हुए थे एंबुलेंस में, जो हाईवे पे खड़ी हुई थी. ४०-४५ मिनट तक कोई आया भी नहीं. ये सब तो मैंने पढ़ा है लेकिन, वो वापस आना चाह रहे थे, वो मुझे नहीं मालूम. इतना जरूर मालूम है कि पार्टिशन के कुछ दिनों पहले वो नेगोशिएट कर रहे थे कि उनकी प्रॉपर्टी बॉम्बे में हो. तो मतलब उनका इरादा था कि कुछ और प्रॉपर्टी भी खरीद लूं. तो एक प्रॉपर्टी तो उधर बनाई ही रहे थे, थोड़ी दूसरी इधर भी चाहिए थी.
लेकिन, इसमें कोई शक नहीं है कि दिल्ली से, यूपी से, बिहार से, मध्य प्रदेश से लोग गए थे ईस्ट पाकिस्तान जो आज का बांग्लादेश है. ये जो लोग गए थे इनमें से कई अक्सर वापस आना चाहते थे और आना शुरू कर दिया था. अल्टीमेटली भारत सरकार ने कानून बनाया जो सिर्फ पश्चिम पाकिस्तान के लिए था पूर्व पाकिस्तान के लिए नहीं कि, आपको अब इधर आने के लिए परमिट लेना पड़ेगा जिससे बहुत से लोग सरकार से, जवाहरलाल नेहरू से नाखुश थे. ये तो पता नहीं कितनों को वापस बुलाया होगा लेकिन कुल मिला के आठ नौ हजार आदमी वापस आए परमिट लेकर. बाकियों को आने नहीं दिया गया. और भी लोग आना चाहते थे, उनको लगा कि वहां पे जा के हमने गलती कर दी. And they wanted to come back. ये मैनें सुना है. बहुत से पाकिस्तानियों से कि उनकी जो नानी थी, दादी थी वो कहती थीं कि जब मर जाऊ मैं तो मुझे किसी भी तरह से जाके मुरादाबाद में दफन करवाना, मुझे यहां नहीं दफनाना. या मुझे आजमगढ़ भेज देना, मेरी बॉडी को रामपुर में दफन करवा देना या बनारस में करवा देना. ये बहुत कॉमन है, उनको फैंटेसी थी कि, कम से कम मैं मरूं तो दफन इंडिया में हूं. तो वो चली गयीं थीं, परिवार चला गया तो वो भी चली गयीं, लेकिन उनके दिल में वही रहा, उनके शहर से उनका रिश्ता टूटा नहीं. तो आप जब वहां दुकानों का नाम पढ़ते जाओगे तो आपको बड़ा अफसोस होगा कि अमृतसर स्वीट्स, दिल्ली फलां, लखनऊ फलां, कानपुर ये, गोरखपुर वो, उनके दुकानों पे उनके शहरों का नाम लिखते हैं.
पिछले दिनों एक बात हुई थी जो मुझे बहुत इनसेंसिटिव लगी. बैंगलोर में कोई मिठाई की दुकान है – कराचीवाला! और उसके ऊपर लोगो ने प्रोटेस्ट किया और कहा, “ये कराचीवाला हटवा दीजिए.” शर्म आनी चाहिए उन्हें. ये वो लोग हैं, सीधे साधे सिंधी जो वहां कराची में रहते थे, उनकी जमीन थी वहां पर. इन मुस्लिमलीगियों ने उनको वहां से निकाल दिया. जिस शहर में, जिस जमीन में उनकी नस्ले रहीं थी वो उनका नाम तो अपने पास रखेगा. तो तुम उनसे नाम भी छीनना चाहते हो? तुम्हे शर्म नहीं आती? कि वो जमीन थी उसकी, जहाँ से वो निकाला गया, उसे आज भी याद करता है. तुम्हें उसकी याद पे ऐतराज है? कैसे आदमी हो भाई तुम? सबकुछ छीन लिया गया लेकिन वो अपना कराची नाम लिए बैठा है. ये कराची क्या किसी के बाप का है? जो वहां पर बैठा है? इसकी जमीन थी, इसका भी घर था और जो लोग कहते हैं कि तुम कराची हटा दो, ये वो लोग हैं जो अपने शहर से मोहब्बत करना नहीं जानते.
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धर्म और सामाजिकता