(प्रश्नोत्तर सत्र में मशहूर फिल्मकार करातीं कानडे ने जावेद अख्तर से एक सवाल अंग्रेजी में पूछा, तो उन्होंने अंग्रेजी में जवाब देना शुरू किया. लेकिन, श्रोताओं की ओर से आवाज़ उठी कि वे हिंदी में बोलें. हिंदी में ही सवाल पूछने आग्रह करते हुए उन्होंने पहले सवाल दोहराया और जवाब दिया…)
क्रांती कानडे : सवाल ये था कि मुस्लिम समुदाय में नास्तिकता का इतिहास क्या रहा है?
जावेद अख्तर : मुस्लिम समुदाय से इनका मतलब क्या है? दुनिया के सारे मुस्लिम एक समुदाय नहीं है. अलग-अलग देश हैं. इसको इस्लामिक वर्ल्ड कहते हो, तो यूरोप को क्रिश्चियन वर्ल्ड क्यों नहीं कहते हो? ये इस्लामिक वर्ल्ड जो कहते हैं, वह गलत है, ये एक मिथक है. ये मुल्ला लोग भी बोलते हैं और दूसरे लोग जो मुस्लिम नहीं है और जिनको मुसलमान कुछ खास पसंद नहीं हैं, वे भी बोलते हैं. कमाल की बात ये है कि मुल्ला, जो कि दावा करते हैं मुसलमान होने का; जो भाषा बोलते हैं और वे लोग जिनको खास पसंद नहीं है मुसलमान, उनकी भाषा बहुत मिलती जुलती है.
…तो ये इस्लामिक वर्ल्ड तो कुछ है ही नहीं. ये झूठ है. दुनिया में अलग-अलग मुल्क है. उनकी अपनी-अपनी राष्ट्रीयता है, अपना-अपना इतिहास है. धर्म केवल एक घटक है इंसान का. धर्म से पूरा इंसान नहीं बन जाता. वह कितना भी बड़ा बिलीवर हो, उसके साथ उसका सांस्कृतिक इतिहास होता है, राजनैतिक इतिहास होता है, भौगोलिक realities होती हैं… वह रहता किधर है? करता क्या है? वहां की धरती कैसी है? क्या हुआ है? कौन-सी फोर्सेस हैं? आर्थिक स्थिति क्या है? ये सब मिलकर एक इंसान बनता है. …और भाषा क्या है? मुझे तो धर्म से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण भाषा लगती है. धर्म का तो आप कितना भी (पालन) करते हों, दिन में आधा घंटा कर लेंगे… बाकी साढ़े तेईस घंटे तो आप ज़बान बोलेंगे. सपना भी देखेंगे, तो अपनी भाषा में देखेंगे. धर्म के मुकाबले भाषा आपके साथ ज्यादा रहती है, लेकिन उसको लोग महत्व नहीं देते. ये गलत बात है. जहां तक मुस्लिम समुदाय की बात है, मैं तुर्की, ईरानी, मिस्री और लीबियाई मुसलमानों के बारे में नहीं बोल सकता. जैसे गोवा का एक क्रिश्चियन सारे यूरोप के क्रिश्चियनों के बारे में कैसे बोलेगा? वह गोवा में क्या है, बता सकता है. मैं आपसे जब कहूंगा ‘मुस्लिम समुदाय’… तो मेरा मतलब होगा सिर्फ हिंदुस्तान. हमारे यहां के लोग. यहां पर जो मुस्लिम होते हैं, बस वे. अपने यहां नास्तिकता का इतिहास बहुत ही रोचक रहा है. उत्तर भारत में मुसलमानों की ज़बान उर्दू नहीं है, जो तमिलनाडु का मुसलमान है, उसकी ज़बान उर्दू नहीं है, जो बंगाल का मुसलमान है, उसकी ज़बान उर्दू नहीं है.
दुनिया में बहुत से मुल्कों का बंटवारा हुआ है, लेकिन एक रिकॉर्ड पाकिस्तान ने जो बनाया है, वह कभी टूटेगा नहीं. वहां मेजॉरिटी ने माइनॉरिटी से पार्टिशन मांगा ! अक्सर देखा गया है कि माइनॉरिटी मांगती है पार्टिशन. वहां पर दस करोड़ बंगालियों ने सात करोड़ पंजाबियों से कहा कि हमें अलग मुल्क चाहिए… और बांग्लादेश बना. बांग्लादेश किस इश्यू पर बना? बाकी बहुत इश्यूज से अलग एक इश्यू था : भाषा ! आप हमको उर्दू नहीं पढ़ा सकते. हमारी ज़बान बंगाली है और हम बंगाली ही पढ़ेंगे. दस करोड़ मुसलमानों ने बांग्ला पसंद की और उर्दू नहीं पसंद की. उसके बाद भी अगर आप उर्दू को मुसलमानों की ज़बान कहें, तो क्या गलत बात नहीं होगी? ये सच है कि उत्तर भारत में ये ही ज़बान थी, पर उत्तर भारत में सिर्फ मुसलमानों की ये ज़बान नहीं थी. उत्तर भारत के हिंदुओं की ये ज़बान थी, सिखों की भी ये ज़बान थी. आज भी आपको दिल्ली में जो पंजाबी मिलेंगे, सिख मिलेंगे, वे बताएंगे, ‘‘मेरे दादा सिर्फ उर्दू अखबार पढ़ते थे…’’, ‘‘मेरे दादा सिर्फ उर्दू लिखते थे…’’ पहले ७० के दशक तक पिता का जिक्र होता था, अब दादा का होता हैं. …तो सभी उर्दू पढ़ते, लिखते थे. ये two nation theory पूरी झूठ है. हिंदू और मुसलमान, उपमहाद्वीप के दो राष्ट्र नहीं हैं. ये एक ही राष्ट्र हैं. ये two nation theory का जब झूठ बोला गया, तो इतिहास बाँट लिया. इतिहास का एक वर्जन बनाया हिंदू इतिहासकारों ने, एक मुस्लिम इतिहासकारों ने. दोनों झूठे थे. जमीन बाँट ली, अब भाषा कैसे बाँटोगे भाई? उर्दू तो लिविंग प्रूफ थी कि two nation नहीं है. ऐसा तो हो नहीं सकता कि नाम तुम रख लो, घर हम ले लेंगे. ये तो मुमकिन नहीं था. उसे एक तरफ़ धकेलना ही था, तो उसको मुसलमान बना दिया गया.
उर्दू में क्या मुसलमान है, मुझे मालूम नहीं. एक बात जरूर मालूम है कि १७९८ में शाह अब्दुल कादर नाम के एक साहब थे दिल्ली में, जिन्होंने पहली दफा कुरान का भाषांतर उर्दू में किया था. पूरे ७०० साल बाद उसका भाषांतर सिंधी में हुआ. भारत की पहली भाषा, जिसमें कुरान का भाषांतर हुआ, वह सिंधी थी. जब शाह अब्दुल कादर ने तर्जुमा किया, तो उस वक्त जितने मुल्ला और काज़ी थे, उन सबने कुफ्र का फतवा दे दिया इसे; कि इस आदमी ने गंदी ज़बान में, काफ़िर ज़बान में, नास्तिक ज़बान में कुरान का भाषांतर किया. उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया. उसी ज़बान को १८५७ के बाद धीरे-धीरे दाढ़ी चिपकाकर, टोपी लगा दी गई, अंग्रेजों के मर्जी से… और यही हिंदी जो किसी भी हिंदुस्तानी की है, उसे फोर्ट विलियम कॉलेज में हिंदुओं की भाषा बनाया गया. भई! कहीं धर्म की भाषा होती है? भाषा होती है रीजन की, रिलीजन की नहीं होती. जो केरल का मुसलमान है, उसकी ज़बान मलयालम है. इतना बड़ा लेखक था बशीर…. या काज़ी नजरूल इस्लाम… बंगाली शायर था. वह बंगाली में लिखता था, बंगाली ही बोलता था, बंगाली ही सोचता था. उसकी ज़बान उर्दू थोड़े ही थी. मैं यहां आया हूं सांगली में; तो मुझे कई मुसलमान मिले. सब मराठी में बातें कर रहे है, तो इनकी भाषा मराठी है. ज़बान इलाकों की होती है. अब ऐसे में उर्दू को मुसलमानों की ज़बान कहना तो बेवकूफी ही हुई न बात तो ये गलत है. ये सच है कि उत्तर भारत के ज्यादातर मुसलमान, सिख या हिंदू; उर्दू ही लिखते थे, बोलते थे और उर्दू वहां विकसित हुईं.
अब मैं ये बता सकता हूं कि उर्दू भाषा, जिसे उत्तर भारत के ज्यादातर मुसलमान लिखते-पढ़ते-थे. अब तो नहीं रहा उतना. उस भाषा का इतिहास भी बहुत रोचक है. पहले तो आप समझिए भाषा क्या होती है? बहुत से लोग समझते है कि ये बाहर से कहीं से आई है. क्या भाषा का मतलब उसकी स्क्रिप्ट है? ये पीछे लिखा हुआ पढ़िए, ‘नास्तिक परिषद.’ अगर इसको मैं लिख दूं एनएएसटीआईके पीएआरआईएसएचएडी (NASTIK PARISHAD), तो क्या ये इंग्लिश हो जाएगी? आप फिल्म का पोस्टर देखते हैं – कुछ-कुछ होता है… केयूसीएचएच केयूसीएचएच एचओटीए एचएआई (KUCHH KUCHH HOTA HAI) तो क्या वह फिल्म इंग्लिश है? तो स्क्रिप्ट ज़बान नहीं होती है। अगर स्क्रिप्ट ज़बान होती, तो यूरोप की आधी से ज्यादा भाषाएं तो लैटिन होतीं. इंग्लिश हो, फ्रेंच हो, जर्मन हो, उनकी स्क्रिप्ट लैटिन रोमन है, ज़बान नहीं.। मतलब साफ है कि स्क्रिप्ट ज़बान नहीं है… तो क्या शब्दावली ज़बान है? ‘ये हॉल कम्फर्टेबल है’ इस वाक्य में जो दो मुख्य शब्द है, वे इंग्लिश के हैं… हॉल और कम्फर्टेबल! तो क्या मैं इंग्लिश बोल रहा था? हॉल और कम्फर्टेबल शब्द अंग्रेजी के इस्तेमाल किए, फिर भी बोल तो हिंदी रहा हूं. क्यों? इसलिए कि शब्दावली भी भाषा नहीं है. भाषा है व्याकरण!
अब उर्दू और हिंदी का व्याकरण क्या है? उसमे कुछ फर्क है? कोई फर्क नहीं है. दुनिया की ये दो भाषाएं निराली हैं कि जिनका व्याकरण एक है. दो भाषाओं का व्याकरण कैसे एक हो सकता है? इसलिए कि ये एक ज़बान हैं… ये हिंदुस्तानी है, जिसको कुछ लोग देवनागरी में लिखते हैं, तो कुछ लोग फारसी रस्म-उल-ख़त (लिपि/स्क्रिप्ट) में लिखते हैं. लेकिन, ये भाषा एक है और इसे कृत्रिम रूप से अलग किया गया है. झूठे मुश्किल शब्द डालकर इधर और झूठे मुश्किल शब्द डालकर उधर जानबूझकर अलग करने की कोशिश की गई है. ये ऐतिहासिक रूप से हुआ है. जहां तक उर्दू का सवाल है, उर्दू एक शुद्ध भारतीय भाषा है. इसका जो बेस है, वह है खड़ी बोली. जो आज की हिंदी है, वह भी खड़ी बोली है. ये दोनों एक ही जगह से निकली हैं. खड़ी बोली एक dilect है. dilect उसे कहते है, जिसकी कोई स्क्रिप्ट नहीं होती. ज़बान है, लेकिन स्क्रिप्ट न हो, उसे डायलेक्ट कहा जाता है. तो ये एक dilect है, जिसे लोग पर्शियन में लिखने लगे. पर्शियन क्यों लिखने लगे? इसलिए कि वे मुसलमान थे? नहीं ! पर्शियन तो यहां जहां हम आज बैठे हैं वहां भी थी. यहां के भी बादशाहों की ऑफिशियल ज़बान पर्शियन थी. पर्शियन एक ज़माने में वह थी, जो आज इंग्लिश है. हमारे भाई जो इंग्लिश बोल रहे थे, हिंदी में सवाल किया नहीं उन्होंने. आज पढ़े-लिखे लोग वे कहलाते हैं, जो अंग्रेज़ी बोल लेते हैं. उसी तरह उस ज़माने में पढ़े-लिखे लोग वे माने जाते थे, जो पर्शियन जानते हो. …और ये यहीं नहीं था; ये पूरे मध्य एशिया में था. यहां देखिए, पेशवा! पेशवा तो पर्शियन शब्द है. पेश का मतलब है जो आगे है. पेशवा जो आगे चले… लीडर. मराठी में तो बहुत शब्द पर्शियन हैं और अरेबिक भी हैं. कितने लोगों को मालूम है कि ‘मवाली’ अरेबिक शब्द है. ‘खलास’ अरेबिक शब्द है. नेस्तनाबूत… असेंबली के मिनट्स को मराठी में कहा जाता है ‘अहवाल.’ ये भी पर्शियन है. तो शब्द जो हैं, वे एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं. वहां समंदर है, यहां दरिया हो गया! हम उर्दू वाले लोग समंदर बोलते है और दरिया कहते हैं नदी को. जो पर्शियन का शब्द है ‘दरिया’, उसका मतलब है समंदर. मराठी लोग सही बोलते है उसे ‘दर्या’, हम गलत बोलते हैं.
ये जो भाषा है उर्दू, इसकी एक डिस्टिंक्शन है. दुनिया में जितनी भाषाएं हुईं, चाहे वह ग्रीक हो, रोमन हो, संस्कृत हो, अरेबिक हो, इनकी शुरू की कविताएं हमेशा धार्मिक रही हैं… देवी-देवताओं के बारे में, ईश्वर के बारे में, कोई पवित्र प्रथाओं के बारे में, रीति-रिवाज हैं उसके बारे में. फिर धीरे-धीरे मोहब्बत की बातें होने लगीं. फिर उसके बाद राजनैतिक और सामाजिक भान आया कविताओं में. उर्दू एक ऐसी भाषा है…. ये कैसे हुआ मालूम नहीं; किंतु उर्दू कविताएं शुरू हुई हैं सेक्युलर और अधार्मिक. ग़ज़ल एक प्रकार है कविता का, जिसमे सबसे ज्यादा कविताएं पारंपरिक ही होंगी. ग़ज़ल बहुत लोग कहते हैं, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि ये रचना होती क्या है. ये बहुत रोचक रचना है. ये बिस्किट का डिब्बा आता है. एक ही डिब्बे में मीठा, नमकीन, बटरवाला, क्रीमवाला, खारा बिस्किट… हर तरह के बिस्किट एक ही डिब्बे में हैं. ग़ज़ल भी ऐसे ही बिस्किट के डिब्बे जैसी है. ग़ज़ल में हर दो पंक्तियां मिलाकर एक शे’र बन जाता है. वह अपने आप में पूर्ण है. अगले और पिछले शे’र से उसका कोई संबंध हो, ये जरूरी नहीं. हर शे’र अपने-आप में एक पूर्ण स्टेटमेंट है. तो ग़ज़ल में ये सब साथ में कैसे हैं? ये साथ में यूं हैं कि, मीटर एक है, फिर यमक (तुकांत/अनुप्रास) एक है. उसके अलावा एक और चीज है, जो हम लोगों ने पर्शियन कविताओं से ली है और चाहे आज मराठी में होती हो, पंजाबी में होती हो, गुजराती में होती हो, उर्दू में, हिंदी में भी इसको लिया गया है, ‘रदीफ़’ ! रदीफ़ यमक के बाद आता है. जैसे
दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है
…तो ये ‘दवा’ – ‘हुआ’ ये यमक है. आखिरी का ‘क्या है’ जो रिपीट हो रहा है, वो क्या हैं? वो रदीफ़ है. यह अरेबिक में नहीं है, संस्कृत में नहीं है, इंग्लिश में नहीं है, ये इटालियन में नहीं है, जर्मन में नहीं है… ये सिर्फ यहां है. यमक होता है हर भाषा में. मगर रदीफ़ नहीं होती है। अब अगर दो पंक्तियों में पूरी बात कहनी है – हम आप जब बात करते है तो हम मेटाफर बना लेते है कि इस बात के ये-ये अर्थ हैं. एक बोला और दूसरा समझ गया. दोस्तों में बहुत बार होता है यह. उसी तरह से चिह्न बनाए गए हैं ग़ज़ल में. हीरो कौन है ग़ज़ल का? या तो आशिक़ या तो रिंद. रिंद का मतलब शराबी. विलन कौन है, ‘शेख़’, ‘जाहिद’, नासेह. शेख का मतलब है मौलवी, नासेह मतलब नसीहत करने वाला.. धर्म का भेद करनेवाला… ये सही है, ये गलत है, यह बतानेवाला. जाहिद यानी प्योरिटन… मोहतसिफ मतलब नैतिक पुलिस. ये सब विलन हैं ग़ज़ल के… और हीरो है रिंद! रिंद मतलब शराबी नहीं है, जो इस्तेमाल हो रहा है ग़ज़ल में. रिंद का मलतब है चिंतक. जो अच्छी जगह है, वह है मयखाना और जो बुरी जगह है वो है हरम… मस्जिद. ये ग़ज़ल की भाषा है. मगर ये सिंबल हैं… बात कुछ और हो रही है.
जिन्हें प्यास है, उन्हें कम से कम,
जिन्हें प्यास कम, उन्हें दम ब दम
मेरे साक़िया तेरे मयकदे का निज़ाम है कि मज़ाक है?
निज़ाम यानी सिस्टम. वह कह रहा है, जिन्हें प्यास है, उन्हें तुम कम से कम देते हो, और जिन्हें प्यास नहीं है, उन्हें तुम पैग पर पैग दिए जा रहे हो. ये तुम्हारा सिस्टम हैं कि मज़ाक? ये किसके बारे में बोल रहे हो? यह समाज के आर्थिक व्यवस्था के बारे में बोला जा रहा है. यह शराबी के बारे में थोड़े है. ये सिंबल वाली कविताएं हैं. जो बरसों पहले की शायरी हैं – आपने कहा न कि मुस्लिम परंपरा – तो ये मुसलमान शायर है, जिन्होंने ये सब लिखा है…
अक़ाएद वहम हैं मज़हब ख़याल-ए-ख़ाम है साक़ी
अज़ल से ज़ेहन-ए-इंसाँ बस्ता-ए-औहाम है साक़ी
ये जो विश्वास है, वह सब गलत है. Religion is a very weak idea. Right from the beginning human mind is the bag of superstition. ये उर्दू शायरी है… ये सारी की सारी कविताएं, जितने भी बड़े कवि हों, जिनके नाम सुने होंगे आप लोगों ने… मीर, ग़ालिब… ये जो बड़े-बड़े शायर है, ये सब नास्तिक थे. इन सब ने सारी ज़िन्दगी धर्म के खिलाफ कविता की थी. ये परंपरा जो उर्दू में है, और उत्तर भारत में है… मैं उन भाषाओं के बारे में बात नहीं कर सकता, जो मुसलमान तमिल, तेलगू बोलते हैं, उनकी गारंटी मैं नहीं ले सकता. मैं ये बता सकता हूं कि उर्दू बोलनेवाले उत्तर भारत के मुसलमान हैं… वहां सेक्युलर, नास्तिकता की परंपरा बहुत ही स्ट्रॉन्ग और पुरानी है.
क्रांती कानडे : जब हम religious fascism की बात करते है, तो हम कई बार राजनेताओं को दोष देते हैं और जो लोग उन्हें वोट देते हैं, उनके बारे में बहुत कम चर्चा होती है. मतलब ये ऐसा होता है कि एक डॉक्टर अपने पेशंट को उसकी बीमारी के बारे में बिलकुल बात ही नहीं करने दे रहा हो. …तो क्या ऐतिहासिक रूप से भारतीय इंसान सोशल और पॉलिटिकल रिफॉर्म के बारे में थोड़े आलसी हैं?
जावेद अख्तर : आप जहां बैठे हैं, यह तो वहां से शुरू हुआ है भई. महाराष्ट्र ने इतना बड़ा योगदान दिया है, सोशल रिफॉर्म के लिए. पिछड़ी जातियों की, दलितों की आवाज कहीं से उठी है, तो वह यहां से उठी है. सबसे पहले परिवर्तन यहां से आया है. और ये कोई हैरत की बात नहीं है कि उसका जो काउन्टर परिवर्तन था ‘आरएसएस’ वह भी यहीं से बढ़ा है… इसलिए कि यहां के लोगों को पहले से पता चल गया था कि हम लोग जाग रहे हैं. ये भारत ऐसा नहीं है कि मुंबई में ‘गेट वे ऑफ इंडिया’ ऐसे ही बना दिया गया है! मुंबई हमेशा ‘गेट वे ऑफ इंडिया’ रहा है. ये जो विचार आए, खयाल आए, वे यहां से आए. हिंदुस्तान की पहली जो महिला डॉक्टर थी, वह महाराष्ट्र की थी. वह ऐसे ही नहीं थी. शिक्षा के लिए यहां झगड़ा किया गया. एक यहां और एक बंगाल में… शिक्षा में परिवर्तन बहुत पहले से शुरू हुआ था. हर राज्य में ऐसे रिफॉर्मिस्ट आए. अब आपकी मर्जी, आप किसकी बात सुनना चाहते हो. मैं तो आपसे पूछता हूं कि दुनिया में इसका parallel कहां है? Communal issue पर मुल्क बन जाता है… two nation theory पर मुल्क बन जाता है, लेकिन उसके बाद भी एक बड़ा हिस्सा एक संविधान बनाता है, जो सेक्युलर है. इससे आगे आप क्या कहेंगे? ये मामूली बात है? ये हैरत की बात है. इसका parallel आप मुझे पूरे वर्ल्ड के इतिहास में बताइए कहीं?
उन्होंने कहा तुम मुस्लिम देश में रहोगे? …तो तुम बनाओ, हम तो यहीं हिंदुस्तानी देश में रहेंगे, हम हिंदू देश नहीं बनाएंगे. इससे बड़ी सोच क्या हो सकती है? अब हमारा साहित्य देखिए. अब तक हमने अनुवादित साहित्य ही पढ़ा है, अब हर एक भाषा तो हम सीख नहीं सकते. जहां बंगाली हों, मराठी हों. देखिए मराठी के बड़े लेखकों को, क्या लिखा है उन्होंने… बंगाली के लेखकों ने क्या लिखा है, उर्दू और हिंदी के लेखकों ने क्या लिखा है… ये जो सारे लेखक आपको मिलेंगे, वे राइट विंग के नहीं होंगे, लेफ्ट विंग के होंगे… या तो left of the center होंगे. दुनिया के इतिहास में राइट विंग सब जगह मौजूद है, लेकिन एक बड़ा कवि नहीं होगा उनके पास. कवि अगर बड़ा होगा, तो वह लेफ्ट में ही होगा. आप प्रेमचंद को पढ़िए, कृष्णचंद को पढ़िए, मंटो को पढ़िए, फैज को पढ़िए, मजाज़ को पढ़िए, साहिर को पढ़िए. इन्होंने कैसे अपनी कविताओं में सेक्युलरिज्म की बात की है. साहित्य में हमेशा जो बड़े लोग है, उन्होंने हमेशा सेकुलरिज्म की ही बात की है. अच्छी और खुले विचारों की बात की है, सोच की बात की है. उन्होंने छोटा दिल, छोटा दिमाग बनाने की कोशिश नहीं की है. मैं तो कहता हूं, आप लेखकों को छोड़िए, रिफॉर्मर्स को छोड़िए, ये तो हिंदुस्तान की संस्कृति में है. भारतीय संस्कृति ही खुले दिल की है. आप उसे पकड़कर दूसरे विचारों की बनाने की कोशिश करेंगे, तो वह बनेगी नहीं. आप चाहें कि वह एक अल्लाह, एक काबा, एक किताब हो जाए, वह नहीं होगा. वह कैद में जा ही नहीं सकती. वह उसके जीन्स में ही नहीं है. उसे खुला रहना है.
ये इत्तेफाक है क्या कि भारत में लोकतंत्र है, और अगर चलते-चले जाएंगे mediterian तक तो लोकतंत्र नहीं मिलता. क्यों? क्या वजह है, जो यहां हुआ और आगे नहीं हुआ? अगर आप बच्चे को ट्रेंड करेंगे कि बेटा यहीं सच है और कुछ सच नहीं है; यहीं सही है और कुछ सही नहीं है, तो बच्चा लोकतंत्र के विचारों का हो ही नहीं सकता. अगर आपको पांच हजार साल से ये सिखाया जा रहा था कि, और ये बैठकर नहीं सिखाया जाता, ये जीवन की पद्धति है कि ये भी सही है, वह भी सही है; वह भी सही है, ये भी सही है… यह अपनी जगह सही है, वह उसकी जगह सही है… जो मानता ठीक है, नहीं मानता वह भी ठीक है… तो आप में लोकतंत्र का मिज़ाज निर्माण होता है. अब ये जो हो रहा है, ये मध्य-पूर्व के विचार है. वे इधर आ रहे हैं धीरे-धीरे. तुमने जो तरक्की की है, तुम जो बने हो, वह इसलिए बने हो, क्योंकि तुम ऐसे नहीं थे और ऐसे नहीं हो. तुम अगर ऐसे हो गए, तो वैसे हो जाओगे, देख लो उन्हें… किंतु ऐसा नहीं है… हमारे यहां पॉजिटिव फोर्स है, सेक्युलर फोर्स है, एथिस्टिक फोर्स है, एग्नॉस्टिक फोर्स है और हमेशा रही है. अभी नहीं, साढ़े तीन-चार हजार साल पहले चार्वाक तो हमने ही दिया न? हमारी ही धरती पर. अभी मैंने ऋग्वेद की एक ऋचा पढ़ी है. मैंने अपने दोस्त को भेजी और कहा, ‘‘इसे पढ़ो तो दिल गर्व से भर जाता है.’’ हजारों साल पहले हमारे पास वो फिलॉसफर थे, जो यूनिवर्स को ऐसे देखते थे जैसे बड़ा ग्रैंडमास्टर चेसबोर्ड को देखता है कि ये gambit कैसे मूव हुआ? क्या हुआ होगा या नहीं हुआ? ये क्या था, क्या नहीं था? जो सवाल हैं उसमें, जो सोच है, वह कितनी बड़ी है? साढ़े चार-पांच हजार साल पहले की यूनिवर्स के बारे में वह सोच कितनी बड़ी है? हम तो वहां से आए हैं और अब ये लोग हमें किधर ले जा रहे हैं? हमें समझ में नहीं आ रहा… ये हमारा रास्ता नहीं है… हमारा रास्ता ये है कि हम अपनी सोच को, अपने दिल को, अपने दिमाग को खुला रखें. जो बात आती है, आने दो; सुनते हैं, ठीक लगेगी तो मानेंगे, वरना जो मानता है, उसे मानने दो. ये हमारा रवैया रहा है… ये हमारा एटीट्यूड रहा है… ये सोचिए कि हिंदुस्तान में किसी भी समुदाय में नास्तिकता की, ऑब्जेक्टिविटी की, या एनालीसिस की कमी रही है, तो ऐसा कुछ भी नहीं है.
क्रांती कानडे : सर, आज की तारीख में एक सत्तर साल का आदमी भारत का सबसे ज्यादा धार्मिक आइडेंटिफिकेशन करता है. रोचक बात ये है कि ये सत्तर साल का जो आदमी है, ये सत्तर साल पहले जन्मा है. ये गांधीयन, सेक्युलिरिज्म में पला-बढ़ा है. फिर भी आज उसे क्या हो गया है? क्या वह सब झूठा था? छलावा था? क्या आप उसका दिमाग खरीद सकते हो? क्या हुआ क्या है उसे?
जावेद अख्तर : आपने ये जो कहा, ‘‘सत्तर साल का आदमी’’ …तो मैं हो गया हूं सत्तर का. ये क्या सर्वे किया गया है कि सत्तर साल के लोग क्या सोच रहे हैं आजकल? आपने तो सत्तर साल के आदमियों को ब्लेम कर दिया कि सत्तर साल के आदमी बड़े धार्मिक और कम्युनल हो गए हैं. ये किस सर्वे से आपको पता लगा है? सत्तर साल का जो आदमी मिलेगा, यहां भी काफी बैठे हैं, वे वैसे नहीं हैं. वह कहेगा कि ये क्या हो रहा है भाई? वह धार्मिक जरूर था, वहां उसके और मेरे विचारों में, सोच में अंतर जरूर है, लेकिन उसका धर्म जो था, वह उस तक रहता था, उसके व्यवहार मे नहीं था, उसकी सियासत में भी नहीं था और आज भी नहीं है. आज भी हिंदुस्तान के आम चुनाव में साठ फीसद से ऊपर वोट उन्हें जाते हैं, जो ज्यादा धार्मिक नहीं हैं, जो कहते हैं कि हम सेक्युलर हैं. सेक्युलर होते हैं, नहीं होते है, वह अलग बात है. लेकिन उनको नहीं जाते, जो आज के धार्मिक और कम्युनल हैं. वे हैं या नहीं है, वह फिर से दूसरी बात है. हिंदुस्तान की ज्यादातर जनता आज भी अपने वोट को धर्म के नाम पर नहीं दे रही है.
क्रांती कानडे : सर, अगर सत्तर साल का एक हिंदू आदमी ये कोट फॉरवर्ड कर रहा है कि हिंदू खतरे में है, तो एक सत्तर साल मुसलमान क्या फॉरवर्ड कर रहा है? उसकी रिएक्शन क्या है?
जावेद अख्तर : फिर आप टर्न कर रहे समुदाय पर. ये एक नहीं हैं. समुदाय भी शहर की तरह होते हैं. अब सांगली है. सांगली का जो आदमी है न, बड़ा कंजूस होता है! अरे भई! ये क्या बात हुई? अब सांगली में हर तरह के लोग हैं. कोई कंजूस होगा, कोई दिलवाला भी होगा… कोई अपने पैसे लुटा देता होगा, कोई संभालकर रखता होगा… एक एटीट्यूड पूरे शहर का थोड़ी हो सकता है… या मैं तारीफ करूं कि सांगली के लोग कार बड़ी चलाते हैं… अरे पागलपन की बात है. पूरा जो समुदाय है, पूरा जो शहर है, उसके बारे एकराय बनाना गलत है. कोई हिंदू बूढ़ा होगा, जिसने ये लिखा कि हिंदू जातियां और हिंदू खतरे में है. कोई हिंदू बोल रहा होगा. लेकिन ये बकवास है. ये अलग-अलग हैं न? कोई मुसलमान बूढ़ा होगा, तो बोलेगा कि, ये हिंदू तो अब बहुत खतरनाक होते जा रहे हैं. कोई मुसलमान बूढ़ा बोलेगा कि ये क्या बकवास हो रही है यार! ऐसा कुछ नहीं है… अलग अलग रिएक्शन है. एक ही आदमी को पूरे समुदाय का प्रतिनिधि आप नहीं बना सकते. जिस मुल्क में आप ८१% हैं, जहां का प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, आर्मी का मुखिया, कलेक्टर, डिप्टी कलेक्टर, कमिश्नर, यूनिवर्सिटी का कुलगुरु, महानगरपालिका का चेयरमैन… ज्यादातर हिंदू ही हैं, और होने भी चाहिए, क्योंकि ८१ परसेंट हैं. वहां अगर आप खतरे में है, तो फिर आपका बचना बड़ा मुश्किल लगता है भई
क्रांती कानडे : सर, स्थिति ऐसी है कि आज वैश्वीकरण में पैसा नाम की ये जो चीज है, ये केवल एक देश की बन रही है… पूरी दुनिया में आज पैसा बँट रहा है, यहां से वहां जा रहा है… Money doesn’t have any country anymore. Money is the currency of the world. मतलब अगर में ५ अरब रुपए लेकर भारत आऊं, तो क्या मै भारत का पब्लिक डिस्कोर्स खरीद सकता हूं? ये मेरा सवाल है. क्या स्थिति है? आपको क्या लगता है?
जावेद अख्तर : देखिए, भई ! पैसे की अपनी ताक़त होती है, उससे इनकार कर देना, तो बेवकूफी की बात होगी. लेकिन, पैसे की ही ताक़त होती है, ऐसा भी नहीं. और भी बहुत ताकतें होती है समाज में, जिनमें बहुत दम होता है. मिसाल में तौर पर, अगर अमेरिका में पैसेवालों का बस चलता, तो दुबारा ट्रम्प को जितवा देते. वह नहीं जीता न! वहां से ज्यादा पैसेवाले तो दुनिया में कहीं हैं नहीं. उनका इन्ट्रेस्ट यही था कि ट्रम्प जीत जाए. वे सबके सब रिपब्लिकन थे और प्रो-ट्रम्प थे. आज भी जो वहां की बड़ी बड़ी कंपनियां हैं, एलन मस्क साहब जैसे लोग, वे सब ट्रम्प की तरफ थे. लेकिन नहीं जीता न वो! तो ऐसा कुछ नहीं. पैसा है, पैसे की कोई क़ीमत नहीं, ये कहना नादानी होगी, आँखें बंद कर लेना होगा. पैसे की समाज में बहुत बड़ी ताक़त है, और वो इस्तेमाल होता है. लेकिन, सिर्फ पैसा ही सबकुछ नहीं है. ऐसा होता, तो जिस पार्टी के पास ज्यादा पैसा हो, वहीं हर चुनाव जीत जाए. अब ऐसा तो नहीं हो रहा है, नहीं होता है.
क्रांती कानडे : १९८५ में आपकी एक फिल्म आई था, अर्जुन. वही एक एंग्री यंग मैन, एक बेरोजगार आदमी की कहानी है, सनी देओल की. उसमे जो छोटे-छोटे क्षण हैं… जैसे वह बस में चढ़ता है और कोई बदमाश किसी औरत को छूकर परेशान कर रहा है. ऐसी हर चीज़ से उस आदमी को, मतलब सनी देओल को गुस्सा आता है. आज वह एंग्री यंग मैन कहां है? आज की तारीख में क्या वह मोबाइल में बिज़ी है? कहां है? उसकी क्रांति की शक्ति कहां है?
जावेद अख्तर : बहुत अच्छा सवाल किया है आपने. ये वाकई परेशानी की बात है और इसको मै बिल्कुल नकार दूं, तो झूठ बोलूंगा. सच ये है कि, ये जो फ्री मार्केट आया है, उससे बहुत खूबियां भी आई हैं, बहुत भला भी हुआ है, लेकिन हर चीज़ के साथ कुछ अच्छा, कुछ बुरा होता है. इसमें एक है, ‘कलेक्टिव थिंकिंग. ‘हम’ कमजोर हो गया है, और ‘मै’ मजबूत हो गया है. हम ‘हम’ नहीं रहे हैं. ग्रुप थिंकिंग कम हो गई है. आदमी सोचता है, मार्केट में मुझे आगे बढ़ना है, मैं अपना रास्ता कैसे बनाऊं? मैं कौन-सी सीढ़ी इस्तेमाल करूं कि ऊपर चला जाऊं? किस सीढ़ी पर पैर रखूं? कौन-सी स्टेप्स ठीक रहेंगी? …ये उसका फोकस हो गया है. हमारा प्रॉब्लम है… जो ‘हम’ है, वह मार्केट में खुद-ब-खुद कम हो जाता है. ७० के दशक में हमको नौजवान में आक्रोश दिखाई देता था. वह आक्रोश, उस हद तक अब नौजवानों में नहीं दिखता है. ऐसा नहीं है कि सब घर बैठे हुए हैं, लेकिन वह आक्रोश लुप्त है. हुआ ये है कि समंदर बहुत बड़ा हो गया है और उसमें रोशनी के छोटे-छोटे टापू हैं… एक दूसरे से बहुत दूर. ज़रूरी है कि वे कनेक्ट हों. अगर वे कनेक्ट हो गए, तो वो बहुत बड़ी रोशनी बनेंगे.
क्रांती कानडे : Civilisations की पूरी प्रक्रिया मे Concept of the hero बहुत जरूरी रहा है. जैसे गांधी, नेहरू, इंदिरा गांधी ये सेक्युलरिज्म के बहुत बड़े हीरोज थे. एक्सटेंड राजीव गांधी भी. उनका भी एक करिश्मा था। पी.वी. नरसिंह राव और बाद में मनमोहन सिंह ये आर्थिक intellectuals थे, लेकिन हीरोइज्म का डिक्लाइन हुआ. ये poster boys जो हैं, थे… poster of movie was down. क्या आपको ऐसा लगता है कि सेक्युलरिज्म का जो एक हीरो होता है, वह मिसिंग है?
जावेद अख्तर : आपकी बातों में कुछ सच्चाई है. इसमें कोई शक नहीं. इसमें कहीं एक करिश्माई लीडर की कमी है. सेक्युलरिज्म का आइडिया समाज मे अभी जिंदा है, लोग उसके लिए बैचेन भी हैं. उस पर जरा-सी भी आंच आती है, तो लोगों में बैचनी पैदा होती है. लोग खुश नहीं होते, अगर ये कम हो जाए. हो सकता है कि वे उसका गलत कारण ढूंढते हों, सही कारण नहीं ढूंढ पाते हों. सेक्युलरिज्म कम हो या समाज में हार्मनी कम हो, तो वह लोगों को डिस्टर्ब जरूर करता है. कई आइडियाज भी फ्लोट हो रहे हैं. लेकिन, इसमें कोई शक नहीं है कि सेक्युलर फोर्सेस के पास इस वक्त ऐसा करिश्माई लीडर नहीं है, जिसको देखकर सब मान जाए कि हाँ, यही है. अब ये बात अच्छी है या बुरी, मुझे नहीं मालूम. लेकिन, होता क्या है कि जब आप ऐसा करिश्माई लीडर ढूंढते हैं और हमेशा इतिहास में ही होता है, तो आपका विश्वास फिलोसॉफी से ज्यादा लीडर पर होने लगता है. दर्शन कम हो जाता है और लीडर का दर्शन महत्वपूर्ण हो जाता है. ‘दर्शन’ शब्द मैं यहां फिलॉसफी के लिए इस्तेमाल कर रहा हूं. यही कम्युनिज्म के साथ हुआ. कम्युनिज्म एक फिलॉसफी थी, जिसको रशियन रिवोल्यूशन में लेनिन ने और उसके बाद स्टेलिन ने लीड किया. ये तो सुपरस्टार बन गए, लेकिन लोगों का ध्यान कम्युनिज्म से हट कर उनकी तरफ ज्यादा चला गया. लोगों ने उन्हें देवता बना दिया. मुझे मालूम नहीं कि ज्यादा मैच्योर बात क्या है? आपके पास करिश्माई लीडर हो, जिस पर आप अपनी पूरी आस्था, पूरा विश्वास रख दें. एक तरह से वह आपका पूरा धर्म बन जाए? या कि आपके पास कोई एक विशिष्ट करिश्माई लीडर न हो, लेकिन आप उस फिलॉसफी से, उस आइडियोलॉजी से, उस थिंकिंग से वफादार रहें? इनमें से कौन-सी बात ज्यादा मैच्योर है, इसका फैसला आप कर लीजिए.
क्रांती कानडे : इसके साथ थोड़ा बड़ा प्रश्न ये है कि ऐसा कहते हैं कि Political History of the world is a bunch of great speeches. मतलब राजनीतिक इतिहास जो है, दुनिया का, किसी भी देश का, वे महान राजनीतिक भाषणों का पुलिंदा हैं. ये ग्रेट सेक्युलर पॉलिटिकल स्पीच का जो ये डॉट है, क्या वह ख़त्म हो गया है?
जावेद अख्तर : नहीं! ऐसा नहीं है. स्पीच का मतलब है कम्युनिकेशन. कम्युनिकेशन तो पहले से बढ़ गया है. अब आपके पास कम्युनिकेशन के सोर्सेस अलग हो गए हैं. आज आपके पास गूगल है, ट्विटर है, व्हाट्सएप्प है… एंड सो ऑन. आपके पास जितनी जानकारी और डिटेल्स एवलेबल है, ऐसा इससे पहले कभी नहीं था. जहां तक स्पीच की बात है, अच्छा बोलते हैं, अच्छी तरह बोलते हैं… अच्छी बात है, खूबी की बात है कि आप अच्छा बोलते हैं. लेकिन, इसका दुरुपयोग भी हो सकता है. Hilter was a great orator. बहुत कमाल का orator था हिटलर. …तो क्या हुआ? तो ये जो पाॅवर है, उसका उपयोग सही भी हो सकता है, गलत भी हो सकता है. बल्कि, ज्यादातर तो गलत ही होता है. आपको एक ज्ञान बिना पैशन के, बगैर ड्रामेबाजी के दे दिया जाए और आप सोचकर उसे एनालाइज करे, तो ज्यादा बेहतर है.
क्रांती कानडे : अगर आपको दो दिन के लिए भारत का प्रधानमंत्री बनाया जाए, तो आप कौन-से दो बदलाव लाना चाहेंगे?
जावेद अख्तर : ऐसी बात आजकल किसी को सूझनी भी नहीं चाहिए कि मैं भारत का प्रधानमंत्री बनूं. मैं घर तक पहुंच पाऊंगा या नहीं? आप मुझसे पूछिए कि क्या होना चाहिए? तो मैं यही कहूंगा कि इस देश मे कितना भी प्रॉब्लम हो, शिक्षा का बजट १० फ़ीसदी होना चाहिए. हमारे यहां आरक्षण की बहुत बातें होती रहती हैं. होना चाहिए, नहीं होना चाहिए, होगा, तो कब तक होगा, कब तक नहीं होगा… आप ये सब छोड़ दीजिए थोड़े दिन के लिए. आप ये शुरू कीजिए कि हमारे यहां बहुत अच्छी शिक्षा है. चाहे वह मेडिकल में हो, इंजीनियरिंग में हो, आईटी में हो बहुत अच्छी शिक्षा है. परंतु हमारी जो प्राइमरी और बेसिक शिक्षा है, वह कमजोर है. अच्छे स्कूल सिर्फ पैसेवाले बच्चों को उपलब्ध हैं. वे अच्छे स्कूल में पढ़ पाते हैं. जो गरीब का बच्चा है, उसके गांव में आठ क्लास हैं और टीचर एक ही है. ये हालात है गांव में. तो अगर प्राइमरी और बेसिक शिक्षा को आप स्ट्रॉन्ग कर देंगे, तो फिर किसी आरक्षण की जरूरत ही नहीं रहेगी. लेकिन, अगर आप रेस बराबरी से शुरू नहीं करवाते, एक लाइन में बच्चों को खड़ा करके नहीं शुरू करते… तो आप कैसे कह सकते हो कि आरक्षण नहीं होना चाहिए? वह तो होगा ही ! ये सीख लीजिए आप और फिर २० साल बाद बात कीजिए कि आरक्षण कब तक चलेगा. पहले ये तो ठीक कीजिए. …और दूसरा बजट का १० फ़ीसदी स्वास्थ्य के लिए होना चाहिए. यहां एक आम इंसान को अच्छा इलाज ही नहीं मिलता. हिंदुस्तान में एक हफ्ते में जितनी औरतें minor meternal complications से मरती हैं, पूरे यूरोप में एक साल में नहीं मरतीं. जैसे समझिए कि हर साल हिंदुस्तान में ४०० जंबो जेट क्रैश हो जाएं, उससे ज्यादा औरतें मरती हैं. ४०० जंबो जेट अगर एक साल में क्रैश हो जाए, तो हंगामा हो जाएगा ना, पागल हो जाएंगे लोग. लेकिन, जो औरतें मरती हैं, वे गरीब हैं, तो मर जाएं, इसकी किसे फिक्र है? जो देश अभी ५ ट्रिलियन की इकोनॉमी बनने वाला है, उस देश में जितना कुपोषण है, उतना तो सहारियन देश, जो कि सबसे गरीब देश हैं, उनमें भी नहीं है. ये तो शर्म की बात है. क्या ये हमारा इश्यू नहीं है? किसका खर्च कर रहे हो भाई? किस चीज़ पर खर्च कर रहे हो? फिर डिफेंस भी बजट का हिस्सा होना चाहिए. अगर देश को बचा रहे हो तो सिर्फ सरहद पर थोड़ी बचाओगे तुम!! उसे बीमारी से भी तो बचाओगे!!! ये डिफेंस है. जहालत से भी तो बचाओगे, ये डिफेंस है. देश का डिफेंस तुम बिना बीमारियों से लड़े, जहालत से लड़े कैसे कर सकते हो? हमारा डिफेंस सिर्फ सरहदों पर नहीं है. ये भी डिफेंस का हिस्सा है.
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भाषा, लोकतंत्र, कला
क्रांती कानडे आणि जावेद अख्तर याच्या बातचितीत मला हे जाणवले की, क्रांती कानडेंच्या पहिल्याच प्रश्नाला जावेद अख्तरयांनी दिलेले उत्तर मासले वाईक आहे. त्यांनी मुस्लिम समुदाय या संकल्पनेलाच अक्षेप घेतला. पण खरेतर क्रांतीजिंनी वापरलेला यथायोग्यच होता. संपूर्ण जगातिल मुस्लिम एक समुदाय म्हणूनच वावरताना दिसतात. आपल्या देशात जेंव्हा स्वतंत्र चळवळ चालू होती, तेंव्हा सुद्धा जीनांनी मुस्लिमलीगची स्थापना करुन आपले वेगळेपण दाखवून दिले होते. द्वीराष्र्टवाद जिनांनीच उपस्थित केला होता; ज्याची परिणीती धार्मिक तत्वावर पाकिस्तानच्या निर्मितित झाले. मुस्लिम समुदाय हा धार्मिकतेत कट्टरच असतो. पण अख्तर यांनी शायर आणि गजलकार नास्तिक असतात असे सांगून मूळ प्रश्नालाच बगल दिली. खरेतर मुस्लिम संपूर्ण जगात जेथें जेथे मुस्लिम लोक रहातात तेथे तेथे ते धार्मिकतेवर दंगली घडवून अशांतता माजवताना दिसतात. क्रांतीजिंच्या ‘ सत्तर सालका हिंदू हिंदू खतरेमें है असे म्हणत असेल तर सत्तर सालच मुसलमान काय म्हणेल?’ या प्रश्नाला उत्तर देताना पुन्हा त्यांनी समुदाय शब्दाला अक्षेप घेतला, आणि उडवाउडवीची उत्तरे दिली. त्यामुळे ही प्रश्नोत्तरे एक बकवासच वाटली. जाता जाता मला एक गोष्ट आपल्या निदर्शनास आणावीशी वाटते की, या अकाची मुदत संपत आली असूनही बहुतांश लेखांवर कोणी प्रतिक्रिया दिल्याचे दिसले नाही.